Adal Aur insaaf me Farq /अदल और इंसाफ़ में फर्क(Hindi/Urdu)

"इंसाफ़ बज़ाहिर (ऊपरी तौर पर) एक अच्छा शब्द लगता है, लेकिन दरअसल यह ज़ुल्म की एक सभ्य शक्ल है। क्यों? क्योंकि इंसाफ़ का मतलब है सबको एक जैसा देना — चाहे हालात, सलाहियत (क्षमता) और ज़रूरतें अलग-अलग क्यों न हों। जबकि अदल यह है कि हर इंसान को उसकी हैसियत, ताक़त, ज़रूरत और सलाहियत के मुताबिक़ दिया जाए।"

🕋 Adal Aur insaaf me Farq /अदल और इंसाफ़ में फर्क

✍️ लेखक: Mohib Tahiri | 🕋 motivational article|Justice and Equity|insaaf aur samaaj 🕰 अपडेटेड:9 july 2025
Adal Aur insaaf me Farq
Adal Aur insaaf me Farq 


दुनिया में "इंसाफ़" के नाम पर जो कुछ लागू है, वह ज़्यादातर सिर्फ़ बाहरी बराबरी है। लेकिन इस्लाम जिस चीज़ का हुक्म देता है वह है अदल। हम में से कई ऐसे हैं जिन्हें Adal Aur insaaf me Farq ही नहीं पता है वो अदल का मतलब है हर व्यक्ति को उसकी हैसियत, ज़रूरत और क्षमता के मुताबिक़ उसका हक़ देना। अगर कमज़ोर और ताक़तवर, बीमार और तंदुरुस्त, अमीर और ग़रीब सब पर एक ही पैमाना लागू कर दिया जाए, तो यह इंसाफ़ नहीं बल्कि एक सभ्य रूप में छुपा हुआ ज़ुल्म है। क़ुरआन ने अदल और एहसान को दीन का बुनियादी उसूल बताया है, क्योंकि अदल ही वह पैमाना है जो समाज में संतुलन, सुकून और अमन क़ायम करता है। यह लेख Adal Aur insaaf me Farq इसी बुनियादी फ़र्क़ — इंसाफ़ बनाम अदल — को क़ुरआनी तालीमात और अमली मिसालों की रोशनी में बयान करता है।
अक़्सर हमें यह सिखाया गया कि “इंसाफ़ होना चाहिए” लेकिन हक़ीक़त यह है कि कुरआन और सुन्नत में इंसाफ़ (Justice) का कोई तसव्वुर नहीं है। हम "इंसाफ़" को बराबरी समझ लेते हैं, लेकिन कुरआन और सुन्नत हमें अदल और क़िस्त सिखाते हैं — यानी हर एक को उसके हक़ के मुताबिक़, उसकी अहलियत, ज़रूरत और हालात के हिसाब से देना।

इस्लाम हमें "इंसाफ़" का नहीं बल्कि अदल (Equity / Fairness) का हुक्म देता है। और यही फर्क हमारी पूरी ज़िंदगी और मुआशरती (सामाजिक) निज़ाम को बदल सकता है। कभी-कभी बराबर बाँटना (Equality) कमज़ोर पर ज़ुल्म बन जाता है, जबकि अदल (Equity) यह है कि बाँटने का पैमाना हर शख़्स की ज़रूरत और अहलियत के मुताबिक़ हो।
नोट: हमारे समाज (कल्चर) में "इंसाफ़" का लफ़्ज़ अक्सर "अदल" के मानी में बोला जाता है, लेकिन असली फर्क समझना ज़रूरी है।

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⚖️ इंसाफ़ और अदल (न्याय) में बुनियादी फर्क

ज़रा अच्छी तरह समझें:

इंसाफ़ (Justice):
सबको एक जैसा देना।

अदल (Equity)
: हर एक को उसकी ज़रूरत और अहलियत के मुताबिक़ देना।


⚖️ कुरआन का हुक्म क्या है?

📖 कुरआनी आयतें (अदल से मुतअल्लिक़)

अल्लाह तआला कुरआन में बार-बार "अदल" और "क़िस्त" का हुक्म देता है, न कि सिर्फ़ "इंसाफ़" का:

🔘 إِنَّ اللّٰهَ يَأْمُرُ بِالْعَدْلِ وَالإِحْسَانِ
तरजुमा: बेशक अल्लाह अदल और एहसान का हुक्म देता है। (अन-नहल 16:90)

🔘 إِذَا حَكَمْتُمْ بَيْنَ النَّاسِ أَنْ تَحْكُمُوا بِالْعَدْلِ
तरजुमा: जब तुम लोगों के दरमियान फ़ैसला करो तो अदल के साथ फ़ैसला करो। (अन-निसा 4:58)

🔘 كُونُوا قَوَّامِينَ بِالْقِسْطِ
तरजुमा: क़िस्त (इंसाफ़) पर मज़बूती से क़ायम रहो। (अन-निसा 4:135, अल-मायदा 5:8)

🔘 فَأَصْلِحُوا بَيْنَهُمَا بِالْعَدْلِ وَأَقْسِطُوا
तरजुमा: तो (लड़ने वालों) दोनों के दरमियान अदल से सुलह करा दो और इंसाफ़ से काम लो। (अल-हुजुरात 49:9)

🔘 لِيَقُومَ النَّاسُ بِالْقِسْطِ
तरजुमा: ताकि लोग क़िस्त (इंसाफ़) पर क़ायम हो जाएँ। (अल-हदीद 57:25)

कुरआन ने "इंसाफ़" का कहीं ज़िक्र नहीं किया, बल्कि हमेशा अदल, मीज़ान और क़िस्त की बात की है।

📖 मक़सद-ए-शरीअत

“हमने रसूलों को दलाइल के साथ भेजा और उनके साथ किताब और मीज़ान उतारी, ताकि लोग क़िस्त पर क़ायम हों।” (अल-हदीद 57:25)

क़ुरआन ने "अदल" का हुक्म दिया है, "इंसाफ़" का नहीं। इंसाफ़ इंसानी बनाई हुई टर्म है जबकि अदल अल्लाह का हुक्म है।

📖शाब्दिक व पारिभाषिक फर्क: अदल, क़िस्त, एहसान

अदल : दरमियानी राह, सीधापन, चीज़ को उसके हक़ पर रखना अहलियत व ज़रूरत के मुताबिक़ हक़ देना; ज़ुल्म की ज़िद्द
क़िस्त : तौल, सीधा पैमाना गवाही, फैसले और निज़ाम में उसूली बराबरी और अमानत
एहसान: खूबी
, हुस्न अदल से बढ़कर भलाई करना; फ़ज़ल व नेक़ी

 मिसालें जो फर्क को साफ़ करती हैं

आइए कुछ मिसालों के जरिए समझें कि अदल और इंसाफ़ में क्या फ़र्क़ है ताकि आसानी से समझा में आ जाए।
islam me Adal
islam me insaaf nahi Adal hai

1. ईंटें उठाने की मिसाल तीन लोग हैं:

एक ताक़तवर, एक औसत और एक कमज़ोर।अगर तीनों को 10–10 ईंटें दी जाएँ तो यह "इंसाफ़" कहलाएगा — लेकिन दरअसल यह ज़ुल्म होगा।
अदल (न्याय) यह है कि ताक़तवर को 15, औसत को 10 और कमज़ोर को 5 ईंटें मिलें। यानी हर एक को उसकी ताक़त और क्षमता के मुताबिक़ जिम्मेदारी दी जाए।

2. तालीम (शिक्षा) का मैदान: 

तीन छात्र हैं: एक अंधा, एक होशियार और एक शारीरिक रूप से अपंग।
अगर तीनों को एक जैसे पेपर दिए जाएँ तो यह "इंसाफ़" तो होगा — लेकिन हक़ीक़त में यह भी ज़ुल्म है।

अदल (न्याय) यह है कि हर छात्र को उसकी क़ाबिलियत और हालात के मुताबिक़ पेपर दिया जाए।

3. खाने की मिसाल :
तीन लोग हैं: एक बच्चा, एक मरीज़ और एक सेहतमंद बड़ा।
अगर हर एक को एक दूध, एक जूस और एक रोटी दी जाए तो यह "इंसाफ़" तो होगा — लेकिन अदल नहीं होगा।

अदल (न्याय) यह है कि बच्चे को दूध मिले, मरीज़ को जूस और सेहतमंद को रोटी। यानी जिसे जो ज़रूरत हो, वही दिया जाए।

शिक्षा, अदालतों, क़ानून और रोज़मर्रा के फैसलों में हर इंसान को उसकी हैसियत और ज़रूरत के हिसाब से हक़ देना ही अदल है।

🔹 4. ट्रैफिक जुर्माना:

मान लीजिए भारत या पाकिस्तान में एक रिक्शा चालक पर 2000 रुपये का जुर्माना लगाया जाता है और मर्सिडीज़ वाले पर भी उतना ही।
यह "इंसाफ़" तो है, लेकिन दरअसल यह ज़ुल्म है।

अदल (न्याय) यह है कि जुर्माना आमदनी के हिसाब से हो।
क्योंकि रिक्शा वाला राशन काटकर जुर्माना देगा और मर्सिडीज़ वाला जेब से नोट निकालकर भर देगा।
अब आप खुद बताएं,यह कहाँ का इंसाफ़ है? असली अदल यह होता कि जुर्माना आमदनी के मुताबिक़ होता।

🔹 5. फ़िनलैंड की मिसाल

 फ़िनलैंड में यही सिस्टम अमल में है।
वहाँ क़ानून सबके लिए एक जैसे हैं, लेकिन जुर्माना आमदनी के हिसाब से तय होता है।

नतीजा यह है कि समाज खुशहाल और इंसाफ़ पर आधारित है। अगर कोई अमीर शख़्स तेज़ रफ़्तार में गाड़ी चलाए तो उसे लाखों रुपये जुर्माना भरना पड़ता है।
और अगर वही ग़लती कोई मज़दूर करे तो उसे सिर्फ़ कुछ यूरो का चालान भरना पड़ता है।

👉 यही है असली अदल (न्याय) — क़ानून सब पर बराबर लागू हो, लेकिन सज़ा और जुर्माना हर एक की हैसियत और हालात के मुताबिक़ हो।

हम सबको एक जैसा पेपर देते हैं, एक जैसा क़ानून, एक जैसा जुर्माना —
और फिर हैरान होते हैं कि यह समाज ज़ालिम क्यों बन गया।


याद रखिए: बराबरी ज़रूरी नहीं, ज़रूरत के मुताबिक़ देना ज़रूरी है।
और यही अदल (न्याय) है।

📖और इसी से संबंधित अल्लाह तआला का फ़रमान है:
"إِنَّ اللَّهَ يَأْمُرُ بِالْعَدْلِ وَالإِحْسَانِ"
"निस्संदेह, अल्लाह अदल और एहसान का हुक्म देता है।"
(सूरह अन-नहल, आयत 90)

📖 हदीस
रसूलुल्लाह ﷺ ने फ़रमाया:
"اَعدِلوا بين أولادكم"
यानी अपनी औलाद के दरमियान अदल करो। (सहीह बुखारी 2587, सहीह मुस्लिम 1623)

🚨 मुआशरती अलमिया: सबको एक जैसा देना ज़ुल्म है

हमारे तालीमी, क़ानूनी और सामाजिक निज़ाम को "इंसाफ़" (यानी बराबरी) पर खड़ा किया गया है, जो हक़ीक़त में ज़ुल्म है।
एक जैसा पेपर,
एक जैसा क़ानून,
एक जैसा जुर्माना।
अदल यह है कि हर शख़्स को उसकी हैसियत, ताक़त और ज़रूरत के मुताबिक़ दिया जाए।
याद रखो: बराबरी ज़रूरी नहीं, बल्कि ज़रूरी है कि हर एक को उसका हक़ दिया जाए।
यही असल अदल है।


Conclusion:

 बराबरी हमेशा अदल नहीं होती। कई बार बाहरी बराबरी कमज़ोर पर बोझ डाल देती है और ताक़तवर को और मज़बूत बना देती है। क़ुरआन और सुन्नत हमें यह सिखाते हैं कि इंसाफ़ के नाम पर सबको एक जैसा देना दरअसल ज़ुल्म है, जबकि असली अदल यह है कि हर इंसान को उसकी ज़रूरत और क्षमता के मुताबिक़ हक़ दिया जाए।तो यह है Adal Aur insaaf me Farq
अगर हम अपनी व्यक्तिगत ज़िंदगी, शिक्षा प्रणाली, अदालती फ़ैसलों और क़ानूनों में इस सिद्धांत को अपनाएँ तो समाज में संतुलन आएगा, ज़ुल्म कम होगा और अमन-चैन क़ायम होगा। यही अदल है और यही अल्लाह की पसंद है।

अगर हम चाहते हैं कि हमारा मुआशरा ज़ुल्म से निकले, तो हमें इंसाफ़ के बजाए अदल के उसूल पर अपने इदारों, तालीमी निज़ाम, क़वानीन और हुकूमत क़ायम करनी होगी।

क्योंकि इंसाफ़ का मतलब है सबको एक जैसा देना,
और अदल का मतलब है हर एक को उसका हक़ देना।




"انصاف" بظاہر ایک مثبت لفظ لگتا ہے، لیکن دراصل یہ ظلم کی ایک مہذب شکل ہے۔ کیوں؟ کیونکہ انصاف سب کو ایک جیسا دینے کا نام ہے، چاہے حالات، صلاحیت اور ضروریات مختلف ہوں۔ جبکہ عدل یہ ہے کہ ہر انسان کو اس کی حیثیت، طاقت، ضرورت اور صلاحیت کے مطابق دیا جائے۔

🕋 عدل اور انصاف میں فرق (انصاف نہیں، عدل چاہیے)

Adal Aur insaaf me Farq
Adal Aur insaaf me Farq 

دنیا میں انصاف کے نام پر جو کچھ رائج ہے، وہ زیادہ تر صرف ظاہری برابری ہے۔ لیکن قرآن جس چیز کا حکم دیتا ہے وہ ہے عدل۔ ہم میں سے کئ ایسے ہیں جنہیں Adal Aur insaaf me Farq ہی نہیں پتہ -عدل کا مطلب ہے کہ ہر ایک کو اس کی حیثیت، ضرورت اور صلاحیت کے مطابق حق دیا جائے۔ جب کمزور اور طاقتور، بیمار اور تندرست، امیر اور غریب سب پر ایک ہی معیار لاگو کیا جاتا ہے، تو یہ انصاف کے نام پر چھپا ہوا ظلم بن جاتا ہے۔ قرآن نے عدل اور احسان کو دین کا بنیادی اصول قرار دیا ہے، کیونکہ عدل ہی وہ پیمانہ ہے جو سماج میں توازن، سکون اور امن قائم کر سکتا ہے۔ یہ مضمون Adal Aur insaaf me Farq  اسی بنیادی فرق — انصاف بمقابلہ عدل — کو قرآنی تعلیمات اور عملی مثالوں کی روشنی میں واضح کرتا ہے۔اکثر ہمیں یہ سکھایا اور پڑھایا گیا کہ *"انصاف ہونا چاہیے"*، لیکن حقیقت یہ ہے کہ قرآن و سنت میں انصاف (Justice) کا کوئی تصور نہیں ہے۔ ہم "انصاف" کو برابری سمجھ لیتے ہیں، لیکن قرآن و سنت ہمیں "عدل" اور "قسط" سکھاتے ہیں — یعنی ہر ایک کو اس کے حق کے مطابق، اس کی اہلیت، ضرورت اور حالات کے حساب سے دینا۔

اسلام ہمیں "انصاف" کا نہیں بلکہ عدل (Equity / Fairness) کا حکم دیتا ہے۔ اور یہی فرق ہماری پوری زندگی اور معاشرتی نظام کو بدل سکتا ہے۔
بسا اوقات یکساں تقسیم (Equality) کمزور پر ظلم بن جاتی ہے، جبکہ عدل (Equity) یہ ہے کہ تقسیم ہر شخص کی ضرورت اور اہلیت کے مطابق ہو۔

نوٹ: ہمارے معاشرتی عرف میں "انصاف" کا لفظ اکثر "عدل" کے معنی میں بولا جاتا ہے، لیکن اصل فرق سمجھنا ضروری ہے۔

انصاف اور عدل میں بنیادی فرق

ذرا اچھی طرح سمجھیے:
انصاف (Justice): سب کو ایک جیسا دینا۔
عدل (Equity): ہر ایک کو اس کی ضرورت اور اہلیت کے مطابق دینا۔

📖 قرآنی آیات عدل سے متعلّق 

اللہ تعالیٰ قرآن میں بار بار "عدل" اور "قسط" کا حکم دیتا ہے، نہ کہ محض "انصاف" کا:


🔘 إِنَّ اللّٰهَ يَأْمُرُ بِالْعَدْلِ وَالإِحْسَانِ
ترجمہ: بےشک اللہ عدل اور احسان کا حکم دیتا ہے۔النحل 16:90

🔘 إِذَا حَكَمْتُمْ بَيْنَ النَّاسِ أَنْ تَحْكُمُوا بِالْعَدْلِ
ترجمہ: جب تم لوگوں کے درمیان فیصلہ کرو تو عدل کے ساتھ فیصلہ کرو۔النساء 4:58

🔘 كُونُوا قَوَّامِينَ بِالْقِسْطِ
ترجمہ: انصاف پر مضبوطی سے قائم رہو۔النساء 4:135، المائدہ 5:8

🔘 فَأَصْلِحُوا بَيْنَهُمَا بِالْعَدْلِ وَأَقْسِطُوا
ترجمہ: تو (لڑنے والوں) دونوں کے درمیان عدل سے صلح کرادو اور انصاف سے کام لو۔الحجرات 49:9

🔘 لِيَقُومَ النَّاسُ بِالْقِسْطِ
ترجمہ: تاکہ لوگ انصاف پر قائم ہوجائیں۔الحدید 57:25
قرآن نے "انصاف" کا کہیں ذکر نہیں کیا، بلکہ ہمیشہ "عدل، میزان اور قسط" کی بات کی ہے۔
مقصدِ شریعت: “ہم نے رسولوں کو دلائل کے ساتھ بھیجا اور ان کے ساتھ کتاب اور میزان اتاری تاکہ لوگ قِسْط پر قائم ہوں۔” (الحدید 57:25)

لغوی و اصطلاحی فرق: عدل، قِسْط، احسان

اصطلاح لغوی مفہوم شرعی/سماجی مفہوم
عَدْل : درمیانی راہ، سیدھاپن، چیز کو اس کے مقامِ حق پر رکھنا اہلیت و ضرورت کے مطابق حق دینا؛ ظلم کی ضد
قِسْط : میزان و تول، سیدھا پیمانہ گواہی، فیصلے اور نظام میں اصولی برابری اور دیانت
اِحسان : زیبائی، خوبی عدل سے آگے بڑھ کر بھلائی کرنا؛ فضل و نیکی

📖 مثالیں جو فرق واضح کرتی ہیں

اب آئیے کچھ دُنیاوی مثالوں سے سمجھیں تاکہ ہم اچھی طرح سمجھ سکیں کی عدل و انصاف میں کیا فرق ہے ؟

🔹 1. اینٹیں اٹھانے کی مثال

تین لوگ ہیں: ایک طاقتور، ایک درمیانہ اور ایک کمزور۔
- اگر تینوں کو 10، 10 اینٹیں دی جائیں تو یہ انصاف ہے — مگر ظلم ہے۔
- عدل یہ ہے کہ طاقتور کو 15، درمیانے کو 10 اور کمزور کو 5 اینٹیں ملیں۔
 ہر ایک کو اس کی طاقت کے مطابق ذمہ داری ملی۔

🔹 2. تعلیم کا میدان

تین طلبہ ہیں: ایک اندھا، ایک ذہین اور ایک جسمانی معذور۔
- اگر تینوں کو ایک جیسے پرچے دیے جائیں تو یہ انصاف ہوگا — لیکن دراصل یہ بھی ظلم ہے۔
- عدل یہ ہے کہ ہر طالب علم کو اس کی صلاحیت کے مطابق پرچہ دیا جائے۔

🔹 3. خوراک کی مثال

تین افراد ہیں: ایک بچہ، ایک مریض اور ایک صحت مند بالغ۔
- اگر ہر ایک کو ایک دودھ، ایک جوس اور ایک روٹی دی جائے تو انصاف تو ہو گیا — لیکن عدل نہیں ہوا۔
- عدل یہ ہے کہ بچہ دودھ پائے، مریض کو جوس ملے اور صحت مند کو روٹی۔جسے جو ضرورت ہو، وہی دیا جائے۔

🔹 4. ٹریفک جرمانہ

ہندوستان یا پاکستان میں ایک رکشے والے کو 2000 روپے کا جرمانہ ہوتا ہے اور مرسیڈیز والے کو بھی اتنا ہی۔
- یہ انصاف ہے، لیکن ظلم ہے۔
- عدل یہ ہے کہ جرمانہ آمدنی کے حساب سے ہو کیوں کہ 
رکشے والا راشن کاٹ کر جرمانہ بھرے گا
اور مرسیڈیز والا جیب سے نوٹ نکال کر —
یہ کہاں کا انصاف ہے؟ یہاں عدل ہوتا تو جرمانہ آمدنی کے مطابق ہوتا۔

🔹 5. فن لینڈ کی مثال

فن لینڈ میں یہی نظام عملی طور پر موجود ہے۔
- وہاں قوانین سب کے لیے ایک ہیں، لیکن جرمانہ آمدنی کے حساب سے ہوتا ہے۔
- نتیجہ یہ کہ معاشرہ خوشحال اور منصفانہ ہے۔
ایک امیر آدمی اگر تیز رفتاری کرے، تو لاکھوں روپے جرمانہ ہوتا ہے
اور ایک مزدور وہی قانون توڑے تو چند یورو کا چالان۔
یہی عدل ہے — سب پر قانون ایک ہو، مگر جزا و سزا ان کی حیثیت کے مطابق ہو۔

ہم سب کو ایک جیسا پرچہ دیتے ہیں، ایک جیسا قانون، ایک جیسا جرمانہ —
اور پھر حیران ہوتے ہیں کہ یہ معاشرہ ظالم کیوں بن گیا۔
یاد رکھیے: برابری ضروری نہیں، ضرورت کے مطابق دینا ضروری ہے۔
اور یہی عدل ہے۔
📖
اور اِسی سے متعلق اللہ تعالیٰ کا فرمان ہے:

"إِنَّ اللَّهَ يَأْمُرُ بِالْعَدْلِ وَالإِحْسَانِ"
"بے شک اللہ عدل اور احسان کا حکم دیتا ہے۔"
(سورہ النحل، آیت 90)

تعلیم، عدالت، قوانین اور روزمرہ کے فیصلوں میں ہر ایک کو اس کی حیثیت اور ضرورت کے مطابق حق دینا ہی عدل ہے۔جب عدل قائم ہوگا تو ظلم کم ہوگا، لوگ سکون پائیں گے اور اللہ کی رحمتیں نازل ہوں گی۔

حدیث
رسول اللہ ﷺ نے فرمایا:
"اَعدِلوا بين أولادكم" یعنی اپنی اولاد کے درمیان عدل کرو۔
(صحیح بخاری 2587، صحیح مسلم 1623) (حضرت نعمان بن بشیرؓ کا واقعہ)


🚨 معاشرتی المیہ: سب کو ایک جیسا دینا ظلم ہے

ہم نے اپنے سسٹم کو تعلیمی، عدالتی اور معاشرتی نظام کو  "انصاف" کے اصول پر کھڑا کیا ہے: ایک جیسا پرچہ، ایک جیسا قانون، ایک جیسا جرمانہ۔لیکن حقیقت میں یہ ظلم ہے۔
عدل یہ ہے کہ ہر شخص کو اپنی حیثیت، طاقت اور ضرورت کے مطابق دیا جائے۔
> یاد رکھیں: برابری ضروری نہیں، بلکہ انصاف عدل میں ہے کہ جو جس کا مستحق ہے، اسے وہی دیا جائے۔

اصل کامیابی اس وقت ہوگی جب ہم "عدل" کو بنیاد بنائیں۔


نتیجہ

آخر میں بات یہ ہے کہ برابری ہمیشہ عدل نہیں ہوتی۔ برابری بعض اوقات کمزور پر بوجھ ڈالنے اور طاقتور کو رعایت دینے کا ذریعہ بن جاتی ہے۔ قرآن اور سنت نے ہمیں واضح طور پر یہ سکھایا ہے کہ انصاف کے نام پر یکساں تقسیم کے بجائے، عدل کے مطابق ضرورت اور صلاحیت کو دیکھ کر فیصلہ کیا جائے۔ عدل ہی وہ اصول ہے جو خاندان، معاشرے اور ریاست کو توازن بخشتا ہے۔
ہمیں اپنی انفرادی زندگی، تعلیمی نظام، عدالتی فیصلوں اور ملکی قوانین میں یہی اصول اپنانا ہوگا کہ ہر ایک کو اس کا حق اس کی حیثیت اور ضرورت کے مطابق دیا جائے۔ تبھی معاشرے میں ظلم کم ہوگا، سکون بڑھے گا اور اللہ کی رضا حاصل ہوگی۔

اگر ہم چاہتے ہیں کہ ہمارا معاشرہ ظلم سے نکلے، تو ہمیں "انصاف" کے بجائے "عدل" کے اصول پر اپنے ادارے، تعلیمی نظام، قوانین اور حکومت قائم کرنی ہوگی۔

کیونکہ "انصاف" سب کو ایک جیسا دینا ہے، اور "عدل" ہر ایک کو اس کا حق دینا ہے۔


✍️ تحریر: محب طاہری 
📌 کیٹیگری: 🕋 اسلامی مضمون | عدل و انصاف
(ڈاکٹر وردہ وڑائچ کی تحریر سے ماخوذ )

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FAQs (हिंदी में)

Q1: क्या "इंसाफ़" और "अदल" एक ही चीज़ हैं?
👉 नहीं। इंसाफ़ का मतलब सबको बराबर देना है, जबकि अदल का मतलब है हर किसी को उसकी ज़रूरत और क्षमता के मुताबिक़ देना।

Q2: बराबरी क्यों ज़ुल्म बन जाती है?
👉 क्योंकि हर इंसान की हालात, ज़रूरतें और ताक़त अलग-अलग होती है। सबको एक जैसा देना कमज़ोर पर बोझ और ताक़तवर पर आसानी बन जाता है।

Q3: क़ुरआन में "इंसाफ़" का ज़िक्र क्यों नहीं मिलता?
👉 क़ुरआन ने "अदल" का हुक्म दिया है, "इंसाफ़" का नहीं। इंसाफ़ इंसानी बनाई हुई टर्म है जबकि अदल अल्लाह का हुक्म है।

Q4: समाज में अदल कैसे लागू हो सकता है?
👉 शिक्षा, अदालतों, क़ानून और रोज़मर्रा के फैसलों में हर इंसान को उसकी हैसियत और ज़रूरत के हिसाब से हक़ देना ही अदल है।

Q5: अदल अपनाने का फ़ायदा क्या होगा?
👉 जब समाज में अदल होगा तो ज़ुल्म कम होगा, लोग सकून पाएँगे और अल्लाह की रहमतें बरसेंगी।


FAQs (اردو میں)

Q1: کیا "انصاف" اور "عدل" ایک ہی چیز ہیں؟
👉 نہیں۔ انصاف کا مطلب ہے سب کو برابر دینا، جبکہ عدل کا مطلب ہے ہر ایک کو اس کی طاقت اور ضرورت کے مطابق دینا۔

Q2: برابری ظلم کیسے بن جاتی ہے؟
👉 اس لیے کہ ہر انسان کی حالت، ضرورت اور صلاحیت مختلف ہے۔ سب کو ایک جیسا دینا کمزور پر بوجھ اور طاقتور پر آسانی بن جاتا ہے۔

Q3: قرآن میں "انصاف" کا ذکر کیوں نہیں ملتا؟
👉 قرآن نے "عدل" کا حکم دیا ہے، "انصاف" کا نہیں۔ انصاف انسانوں کی بنائی ہوئی اصطلاح ہے، جبکہ عدل اللہ کا حکم ہے۔

Q4: معاشرے میں عدل کیسے نافذ ہو سکتا ہے؟
👉 تعلیم، عدالت، قوانین اور روزمرہ کے فیصلوں میں ہر ایک کو اس کی حیثیت اور ضرورت کے مطابق حق دینا ہی عدل ہے۔

Q5: عدل اپنانے کا فائدہ کیا ہوگا؟
👉 جب عدل قائم ہوگا تو ظلم کم ہوگا، لوگ سکون پائیں گے اور اللہ کی رحمتیں نازل ہوں گی۔



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