Mard ke Rahte Huwe Aurat ka Har Faisala lena(Hindi/Urdu)

"जब कुरआन कहता है कि "मर्द औरतों पर क़व्वाम (जिम्मेदार/संरक्षक) बनाए गए हैं," तो इसका हरगिज़ ये मतलब नहीं कि औरत को नीचा दिखाया गया है या उस पर जबरदस्ती हुकूमत करने की इजाजत दी गई है। बल्कि इसका सही मतलब है कि: मर्द पर यह जिम्मेदारी रखी गई है कि वह अपने घर औरत की हिफाज़त, तालीम, ज़रूरतों और तर्बियत का जिम्मेदार हो, उसे इज्ज़त और सुकून के साथ रखे, जैसा कि दूसरी जगह कुरआन कहता है: "और उनके साथ भले तरीके से ज़िन्दगी गुज़ारो" (सूरह अन-निसा: 19) 


🤵 Mard ke Rahte Huwe Aurat ka Har Faisala lena

Mard ke rahte aurat ka har faisala lena
Mard ke Rahte Huwe Aurat ka Har Faisala lena

आजकल के दौर में कुछ घरों में ऐसा देखने को मिल रहा है कि मर्द के मौजूद होते हुए भी औरत हर फैसला खुद ले रही है, और कभी-कभी तो मर्द को पीछे कर दिया जाता है। इस मसले पर बहुत से लोग कंफ्यूजन में रहते हैं कि क्या यह इस्लाम के मुताबिक़ है? क्या शरीअत ऐसे अमल की इजाज़त देती है?इस लेख Mard ke Rahte Huwe Aurat ka Har Faisala lena में हम कुरान, हदीस और उलमा-ए-किराम के अक़वाल की रौशनी में इस सवाल का जवाब तलाश करेंगे।


📖 Table of Contents(👆Touch Here)

    "इस्लाम ने मर्द और औरत दोनों को बराबरी नहीं बल्कि मुनासिब जिम्मेदारियाँ दी हैं। मर्द को घर का क़व्वाम (निगरान/हाकिम)और औरत को सहयोगी और संरक्षक बनाया गया है। अगर औरत हर फैसला खुद करने लगे, मर्द को नज़रअंदाज़ कर दे, तो घर का निज़ाम बिगड़ जाता है और यह शरीअत के खिलाफ़ है।"अल्लाह के हुक्म के ख़िलाफ़ है

    मर्द औरतों पर क़व्वाम (निगरान/जिम्मेदार)

    जब भी यह आयत पेश की जाती है — मर्द औरतों पर क़व्वाम (निगरान/जिम्मेदार) बनाए गए हैं" — तो कुछ लोगों, ख़ासतौर पर कुछ औरतों के ज़हन में यह ख़्याल आता है कि शायद इस्लाम ने मर्द को औरतों पर हुक्म चलाने वाला, और औरत को उसका ग़ुलाम बना दिया है। उन्हें ऐसा महसूस होता है कि औरत को कमतर समझा गया है।

    लेकिन यह सोच ना तो इस आयत की सही समझ है, और ना ही इस्लाम के उस मुकम्मल इंसाफ़ी निज़ाम की जो हक़ीक़त में औरत और मर्द — दोनों को बराबरी, इज़्ज़त और उनकी फ़ितरत और क़ाबिलियत के मुताबिक़ ज़िम्मेदारियां देता है।

    इस्लाम ने मर्द और औरत — दोनों के लिए अलग-अलग क़ाबिल-ए-इज़्ज़त किरदार तय किए हैं। "क़व्वाम" का मतलब यह नहीं कि मर्द औरत पर हुकूमत करेगा, बल्कि इसका मतलब है कि मर्द को ज़िम्मेदारी दी गई है कि वह अपने घर की देखभाल करे, औरत की इज़्ज़त, हिफाज़त और ज़रूरतों का ख्याल रखे। मर्द पर यह फ़र्ज़ है कि वह अपने घर को चलाए, परिवार का खर्च उठाए और अपनी बीवी-बच्चों की रहनुमाई और रिफ़ाह का ज़रिया बने।
    इस्लाम ने कभी भी औरत को नीचा नहीं दिखाया। बल्कि औरत को माँ, बहन, बेटी और बीवी के रूप में ऐसी इज़्ज़त बख़्शी है जो किसी और मज़हब में नहीं मिलती।

    ज़रूरत है सही समझ की। 

    इस्लाम ने औरत और मर्द दोनों को उनकी फ़ितरत और सलाहियतों के मुताबिक़ अलग-अलग ज़िम्मेदारियाँ दी हैं, और इंसाफ़ का तअल्लुक़ यही है कि हर एक को उसकी सलाहियत के मुताबिक़ काम और दरजा दिया जाए।
    इसलिए, जब इस आयत को पढ़ें या सुनें, तो यह समझें कि इस्लाम का पैग़ाम ग़ुलामी नहीं, ज़िम्मेदारी, हिफाज़त और इंसाफ़ का है।

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    रसूलुल्लाह ﷺ का यह इरशाद है कि "जो मर्द अपनी बीवी की ख्वाहिशों के मुताबिक़ चलता है, वो मानो उसका ग़ुलाम बन गया।"

    📖 कुरान क्या कहता है ?

    कुरान में साफ़ तौर पर घर के निज़ाम और क़यादत (leadership) के बारे में हुक्म दिया गया है:
    अल्लाह तआला ने कुरआन करीम में फरमाया:

    मर्द औरतों पर क़व्वाम (निगरान/हाकिम) बनाए गए हैं..."मर्द औरतों पर निगराँ हैं, इस बिना पर कि अल्लाह ने एक को दूसरे पर बड़ाई दी है और इस वजह से कि मर्द ने अपने माल ख़र्च किए, पस जो नेक औरतें हैं वे फ़रमाँबरदारी करने वाली, पीठ पीछे (शौहर के हुक़ूक़ का) ख़्याल रखती हैं अल्लाह की हिफ़ाज़त से, और जिन औरतों की नाफ़रमानी का तुमको अंदेशा हो तो तुम उनको समझाओ और उनको उनके बिस्तरों में तन्हा छोड़ दो और उनको हल्की सज़ा दो, फिर अगर वे तुम्हारी फरमाँबरदारी करें तो उनके ख़िलाफ़ इल्ज़ाम की तलाश न करो, बेशक अल्लाह सबसे बुलंद है, बहुत बड़ा है।📚 [सूरह अन-निसा: आयत 34]
    इस आयत में अल्लाह ने साफ़ तौर पर मर्द को घर का जिम्मेदार और निगरान बनाया है। इसका मतलब यह है कि मर्द को घर के निज़ाम की बागडोर दी गई है, और औरत को उसकी मददगार के तौर पर रखा गया है। मर्द अपनी बीवी और बच्चों की जिम्मेदारी उठाएगा, फैसले करेगा, और औरत उसका साथ देगी।

    जो मर्द औरत के मुताबिक़ चलते हैं…

    हदीस का मफ़हूम:
    रसूलुल्लाह ﷺ का यह इरशाद है कि "जो मर्द अपनी बीवी की ख्वाहिशों के मुताबिक़ चलता है, वो मानो उसका ग़ुलाम बन गया।"
    📌 इसकी वज़ाहत (व्याख्या):

    इसका मतलब यह नहीं कि मर्द अपनी बीवी की अच्छी सलाह या नेक मशवरे को ना माने, बल्कि बात उस हालत की है जहाँ मर्द खुद को बीवी की हर बात का पाबंद बना ले और बीवी के इशारों पर चलने लगे — चाहे वो बात शरीअत और अक्ल के खिलाफ ही क्यों न हो।

    जब मर्द अपनी हुकूमत (नैतिक नेतृत्व) छोड़कर बीवी की हुकूमत कुबूल कर लेता है, तो वो उस फ़ितरी निज़ाम को पलट देता है जो अल्लाह तआला ने तय किया है। और ऐसा करना शैतान की पैरवी करनी है जो क़ुरआन की इस आयत से पता चलता है।

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    📖 क़ुरआन में शैतान के क़ौल का जिक्र:

    وَلَاٰمُرَنَّهُمْ فَلَيُغَيِّرُنَّ خَلْقَ اللّٰهِ
    "और मैं उन्हें हुक्म दूँगा और वो अल्लाह की पैदा की हुई फ़ितरत को बदल डालेंगे।"
    (सूरह अन-निसा: 119)

    ➡️ यह आयत शैतान के उस वादे की तरफ़ इशारा करती है जहाँ वह इंसानों को अल्लाह के बनाए हुक्म उलटने पर उकसाता है। अगर मर्द अपनी क़ियादत खोकर औरत की रहनुमाई में चलने लगे, तो यह भी उसी उलटफेर का हिस्सा बन जाता है।और यह शैतान की पैरवी होगी। 


    📘 तौहफ़ा अल-उरूसैन में इसी आयत से मुतल्लिक़:

     (तौहफ़ा अल-उरूसैन) में लिखा गया है कि बीवी के लिए शौहर "सैयद" यानी आका, सरदार का दर्जा रखता है।
    🔹 इसका मतलब यह नहीं कि वो ज़ुल्म करे, बल्कि उसकी जिम्मेदारी है कि वो रहनुमा बने — लेकिन हुकूमत का उलट जाना यानी बीवी हाकिम और मर्द मातहत बन जाए, ये शरीअत और फितरत दोनों के खिलाफ है।


    रसूलुल्लाह ﷺ ने फरमाया:वो कौम कभी कामयाब नहीं हो सकती जिसने अपनी क़यादत या अहम मुआमलात एक औरत को सौंप दी।"

    📜 हदीस में क्या कहा गया है ?

    रसूलुल्लाह ﷺ ने फरमाया:

    "لن يفلح قوم ولّوا أمرهم امرأة"
    "वो कौम कभी कामयाब नहीं हो सकती जिसने अपनी क़यादत या अहम मुआमलात एक औरत को सौंप दी।"
    📚 [सहीह बुखारी: हदीस 4425]


    यह हदीस भी उसी असूल पर आधारित है — कि इस्लाम ने मर्द को जिम्मेदार ठहराया है कि वो घर, समाज और क़ौम की रहनुमाई करे। क़यादत (नेतृत्व) एक भारी जिम्मेदारी है जिसमें कठोर फैसले, सुरक्षा, युद्ध, सियासत और न्याय जैसे अहम् काम शामिल होते हैं।
    और इस्लाम हर इंसान को उसकी फितरत और सलाहियत के मुताबिक जिम्मेदारियां देता है।
    औरत को नबी ﷺ ने "शीशे की तरह नाज़ुक" क़रार दिया है — इसीलिए क़यादत जैसे कठोर मामलों को मर्दों के जिम्मे रखा गया।

     इसका मतलब यह नहीं कि औरत की कोई अहमियत नहीं या वो निकम्मी है
    बल्कि इस्लाम ने औरत को:
    • माँ के रूप में जन्नत का दरवाज़ा,
    • बीवी के रूप में सुकून,
    • बेटी के रूप में जन्नत का ज़रिया,
    • और बहन के रूप में रहमत बनाया।
    मगर क़यादत और अम्र (हुकूमत) का बोझ औरत की फितरत के मुताबिक नहीं है, और यह उसका तन्कीस (downgrade) नहीं, बल्कि तौज़ीअ-ए-ज़िम्मेदारियों (जिम्मेदारियों का संतुलन) है।

     पहले अल्लाह की इताअत

    नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया:
     बेहतरीन बीवी वो है कि जब तुम उसे देखो तो तुम्हारा जी ख़ुश हो जाए, जब उसे किसी बात का हुक्म दो तो वो तुम्हारी इताअत करे और जब तुम घर में न हो तो वो तुम्हारे पीछे तुम्हारे माल की और अपने नफ़्स (इज़्ज़त व सतीत्व) की हिफ़ाज़त करे।
    ये हदीस इस आयत की बेहतरीन तफ़सीर (व्याख्या) करती है। मगर यहाँ ये अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि औरत पर अपने शौहर की फ़रमाँबरदारी से बढ़कर अहम बात अपने ख़ालिक़ यानी अल्लाह की इताअत है। इसलिये अगर कोई शौहर ख़ुदा की नाफ़रमानी का हुक्म दे, शरीयत के खिलाफ कोई काम करने को कहे या ख़ुदा की तरफ़ से ठहराए हुए किसी फ़र्ज़ से रोकने की कोशिश करे तो उसकी बात मानने से इनकार कर देना औरत के लिये ज़रूरी है। 
    इस सूरत में अगर वो उसका कहा मानेगी तो गुनाहगार होगी। इसके बरख़िलाफ़ अगर शौहर अपनी बीवी को नफ़ल नमाज़ या नफ़ल रोज़ा छोड़ने के लिये कहे तो लाज़िम है कि वो उसकी इताअत करे। इस सूरत में अगर वो नफ़ल काम करेगी तो (ख़ुदा के यहाँ) वो क़बूल न होंगे।

    यह हदीस एक अहम उसूल बयान करती है कि औरतों को आला दर्जे की क़यादत (लीडरशिप), ख़ासकर मर्दों के ऊपर, नहीं दी गई है। जब मर्द मौजूद हो, तब औरत का आगे बढ़कर हर फैसला लेना शरीअत के उसूलों के खिलाफ़ है। अल्लाह के हुक्म के ख़िलाफ़ है या अल्लाह के क़ानून को बदलना है। 

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    👳‍♂️ उलमा-ए-किराम के अक़वाल

    ➤ इमाम नववी रह. फरमाते हैं:
    "औरत की जिम्मेदारी घर के अंदर तर्बियत और तआवुन की है, न कि हुकूमत चलाने की।"

    ➤ शैख़ इब्ने बाज रह. कहते हैं:
    "मर्द की मौजूदगी में औरत का हर काम में हुक्म चलाना इस्लामी निज़ाम की मुखालफत है।"

    ➤ दारुल उलूम देवबंद का फतवा:
    "घर के निज़ाम का जिम्मा मर्द पर है, और औरत को उस निज़ाम में तआवुन करना चाहिए। अगर औरत हर काम में आगे बढ़े, तो यह ग़ैर-शरई अमल है।"

    ⚖️ क्या औरत कभी फैसला नहीं कर सकती?

    📌 इस्लाम औरत की सलाह को अहमियत देता है। अगर मर्द अपनी बीवी से मशविरा लेता है और उसे कुछ जिम्मेदारियाँ देता है, तो यह बिल्कुल जायज़ है।
    लेकिन अगर औरत मर्द को नज़रअंदाज़ कर दे और खुद को मालिक समझकर हर फैसला करने लगे — चाहे वह घरेलू हो या सामाजिक — तो यह शरीअत के उसूलों के खिलाफ़ है।

    क्या करें, क्या न करें:

    • बीवी की नेक मशवरे माने, लेकिन नेतृत्व खुद रखें।
    • बीवी को इज्ज़त दें, मगर शरीअत और अक्ल के खिलाफ उसकी हर बात न मानें।
    • घर की क़ियादत और फैसलों में मर्द को रहनुमा होना चाहिए।

    Note:

    • इस्लाम में मर्द को हाकिम नहीं, जिम्मेदार और क़व्वाम बनाया गया है।
    • औरत को मजबूर नहीं किया गया, बल्कि माहफ़ूज़ और मुक़द्दस बनाया गया है।
    • मर्द और औरत दोनों की जिम्मेदारियाँ अलग हैं लेकिन मर्तबा और अज्र (इनाम) बराबर हैं।
    • इस्लाम का निज़ाम शिर्कत और तआवुन (साझेदारी और सहयोग) पर है, न कि जबर और गुलामी पर।

    नतीजा (Conclusion)

    1. इस्लाम ने मर्द और औरत दोनों को बराबरी नहीं बल्कि मुनासिब जिम्मेदारियाँ दी हैं।
    मर्द को घर का क़व्वाम और औरत को सहयोगी और संरक्षक बनाया गया है। अगर औरत हर फैसला खुद करने लगे, मर्द को नज़रअंदाज़ कर दे, तो घर का निज़ाम बिगड़ जाता है और यह शरीअत के खिलाफ़ है।

    2. असली कामयाबी इस में है कि दोनों अपने-अपने हदूद में रहकर अल्लाह के हुक्म के मुताबिक़ जिंदगी गुजारें। मर्द लीडर हो, और औरत उसकी मददगार — यही इस्लामी घर का असल नक्शा है।

    3. अगर औरत मशवरे में शामिल हो, और मर्द की रज़ामंदी से घर के कुछ मामलात चलाए, तो यह जायज़ है।

    ❌ लेकिन अगर मर्द की मौजूदगी में औरत हर फैसला खुद करने लगे, मर्द को दबाकर या हुक्म देकर क़यादत करने लगे — तो यह शरीअत के खिलाफ़, घर के निज़ाम को उलटने वाला अमल है और इसकी मज़म्मत (निंदा) की गई है


    इस्लाम में मर्द और औरत दोनों की अलग-अलग ज़िम्मेदारियाँ हैं। मर्द को क़व्वाम बनाकर, औरत को उसकी मददगार और घर की हिफ़ाज़त करने वाली बनाया गया है। अगर दोनों अपने-अपने हदूद में रहें, तो घर जन्नत बन जाता है।



    🤲 अल्लाह हमें अपने घरों में सही निज़ाम और अद्लो-इंसाफ़ के साथ जिंदगी गुज़ारने की तौफ़ीक़ दे — आमीन।

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    📌 مرد کی موجودگی میں عورت کا ہر فیصلہ کرنا یا حکمرانی کرنا – شریعت کی روشنی میں

    آج کے جدید دور میں بہت سے گھروں میں یہ منظر عام ہوتا جا رہا ہے کہ مرد کی موجودگی کے باوجود عورت ہر چھوٹا بڑا فیصلہ خود کرتی ہے، اور بعض اوقات مرد کو پسِ پشت ڈال کر مکمل اختیار اپنے ہاتھ میں لے لیتی ہے۔
    یہ ایک نہایت اہم معاشرتی اور دینی مسئلہ ہے، جس پر شریعت کا واضح مؤقف ہے۔

    "مرد عورتوں پر قَوّام (نگہبان / ذمہ دار):

    جب بھی یہ آیتِ مبارکہ پیش کی جاتی ہےالرِّجَالُ قَوَّامُونَ عَلَى النِّسَاءِ"(مرد عورتوں پر قَوّام بنائے گئے ہیں) تو بعض خواتین کے ذہن میں یہ خیال آتا ہے کہ شاید اسلام نے مرد کو عورت پر حکمرانی کا حق دیا ہے، اور عورت کو محض تابع یا غلام بنا کر پیش کیا ہے۔ بعض لوگوں کو محسوس ہوتا ہے کہ عورت کو کمتر درجہ دیا گیا ہے۔

    جبکہ حقیقت اس کے برعکس ہے۔ نہ تو یہ آیت غلامی کی دلیل ہے، نہ مرد کی فوقیت کی، بلکہ ایک ذمہ داری کی تقسیم ہے جو عدل اور فطرت پر مبنی ہے۔
    اسلام نے مرد و عورت دونوں کو ان کی فطری صلاحیتوں کے مطابق ذمہ داریاں سونپی ہیں۔
    "قوّام" کا مطلب ہے "نگہبان، محافظ اور کفیل" — یعنی مرد کو عورت کی ضروریات، عزت، تحفظ اور گھر کی کفالت کی ذمہ داری دی گئی ہے۔
    اس کا ہرگز یہ مطلب نہیں کہ وہ عورت پر ظلم کرے یا اسے نیچا سمجھے، بلکہ یہ ایک امانت ہے جو مرد کے کاندھوں پر رکھی گئی ہے۔

    اسلام نے عورت کو کبھی کمتر نہیں سمجھا۔

    بلکہ اسے ماں، بیٹی، بہن اور بیوی جیسے عظیم رشتوں میں اعلیٰ مقام دیا ہے۔ عورت کی عزت و عظمت کے جو احکام قرآن و سنت میں موجود ہیں، وہ دنیا کے کسی اور نظام میں نہیں پائے جاتے۔

    ضرورت صرف سمجھنے کی ہے۔
    شریعت نے ہر فرد کو اس کی صلاحیت و فطرت کے مطابق مقام اور ذمہ داری دی ہے۔ عدل یہی ہے کہ ہر ایک کو اس کے دائرے میں مکمل حق اور مقام دیا جائے۔

    لہٰذا جب اس آیت کو پڑھیں یا سنیں، تو یہ یاد رکھیں کہ اسلام کا پیغام نہ غلامی ہے نہ فوقیت، بلکہ ذمہ داری، حفاظت، عدل و مساوات کا پیغام ہے۔

    📖 قرآن کی روشنی میں

    اللہ تعالیٰ نے قرآن مجید میں ارشاد فرمایا:

    "الرِّجَالُ قَوَّامُونَ عَلَى النِّسَاءِ"
    "مرد عورتوں پر قوام (نگران و سربراہ) ہیں..."
    📚 [سورہ النساء: 34]

    یہ آیت واضح کرتی ہے کہ اللہ نے مرد کو عورت پر قوام (نگران، ذمہ دار) بنایا ہے۔
    یعنی گھریلو نظام کی سربراہی مرد کے ہاتھ میں ہے، اور عورت اس کی معاون و مددگار ہے۔
    مرد پر یہ شرعی ذمہ داری ہے کہ وہ اپنی بیوی و بچوں کی قیادت کرے اور ان کے نان و نفقہ کا انتظام کرے۔

    📜 احادیث کی روشنی میں

    حضرت ابو بکرہ رضی اللہ عنہ سے روایت ہے کہ رسول اللہ ﷺ نے فرمایا:

    "لن یفلح قوم ولّوا أمرہم امرأة"
    "وہ قوم کبھی فلاح نہیں پا سکتی جس نے اپنے امور کی باگ دوڑ کسی عورت کے ہاتھ میں دے دی ہو۔"
    📚 [صحیح بخاری: حدیث 4425]

    یہ حدیث اس بات کی دلیل ہے کہ عورت کو عمومی قیادت یا حکمرانی کے منصب پر فائز کرنا، خاص طور پر مردوں کی موجودگی میں، شرعی اصولوں کے خلاف ہے۔ اللّٰہ کے حکم کی خلاف ورزی کرنی ہے, اللہ کے قانون کو بدلنا ہے۔

    👳‍♂️ علماء کرام کے اقوال

    ➤ امام نووی رحمہ اللہ فرماتے ہیں:
    "عورت کی اصل ذمہ داری گھر کی تربیت اور مرد کی اطاعت و معاونت ہے، نہ کہ قیادت و حکمرانی۔"
    ➤ شیخ ابن باز رحمہ اللہ کہتے ہیں:
    "اگر مرد موجود ہو اور عورت ہر کام میں حکمرانی کرے تو یہ اسلامی نظام کے خلاف اور فساد کا باعث ہے۔"
    ➤ دارالعلوم دیوبند جیسے معتبر ادارے کا فتویٰ ہے:
    "مرد گھر کا قوام ہے، اور عورت اس کی تابع دار و معاون۔ اگر عورت ہر فیصلہ خود کرنے لگے تو یہ شرعاً درست نہیں۔"


    ⚖️ کیا عورت کو کوئی فیصلہ کرنے کا حق نہیں؟

    اسلام عورت کی رائے کو اہمیت دیتا ہے، اور مرد کو یہ سکھایا گیا ہے کہ وہ اپنی بیوی سے مشورہ کرے۔
    اگر مرد عورت کو کچھ گھریلو فیصلوں میں اختیار دیتا ہے تو یہ بالکل جائز ہے۔
    لیکن اگر عورت مرد کو پسِ پشت ڈال کر خود کو مالک و حاکم سمجھنے لگے، ہر فیصلہ خود کرنے لگے اور مرد کی اطاعت کو غیر ضروری سمجھے تو یہ اسلام کے مزاج اور نظام کے خلاف ہے۔


    نتیجہ:

    اسلام نے مرد و عورت دونوں کو برابری نہیں بلکہ مناسب ذمہ داریاں دی ہیں۔
    مرد کو گھر کا قوام اور عورت کو معاون و محافظ بنایا گیا ہے۔
    اگر عورت ہر فیصلہ خود کرنے لگے اور مرد کی حیثیت کو نظر انداز کرے، تو گھر کا نظام بگڑ جاتا ہے اور یہ شریعت کے سراسر خلاف ہے

    اصل کامیابی اس میں ہے کہ مرد و عورت اپنے اپنے دائرے میں رہ کر زندگی گزاریں، شریعت کے بتائے ہوئے اصولوں کے مطابق۔
    مرد قائد ہو، عورت معاون ہو — یہی اسلامی گھرانے کا اصل اور کامیاب نمونہ ہے۔


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    📌 FAQs – अक्सर पूछे जाने वाले सवाल


    सवाल 1: क्या औरत घर के मामलात में फैसला नहीं कर सकती?

    जवाब : कर सकती है, लेकिन बशर्ते कि वह अपने शौहर के मशवरे से हो और घर के मुखिया (क़व्वाम) की हैसियत को माने। मर्द की मौजूदगी में उसकी इजाज़त के बग़ैर हर फैसला लेना शरीअत के खिलाफ़ है।

    سوال: کیا عورت گھر کے معاملات میں کوئی فیصلہ نہیں کر سکتی؟
    جواب: کر سکتی ہے، لیکن اپنے شوہر کے مشورے اور اجازت سے۔ مرد کی موجودگی میں اس کی رضامندی کے بغیر ہر فیصلہ لینا شرعاً درست نہیں۔


    सवाल 2: अगर मर्द गैर जिम्मेदार हो, तो क्या औरत को हुक्म चलाने का हक़ है?

    जवाब : अगर मर्द अपनी जिम्मेदारियाँ अदा नहीं करता, तो औरत को हक़ है कि वह घर को सँभाले, लेकिन फिर भी शरीअत की हदूद में रहकर, न कि तानाशाही के तौर पर।

    سوال: اگر مرد غیر ذمہ دار ہو، تو کیا عورت کو حکم چلانے کا حق حاصل ہے؟
    جواب: اگر مرد اپنی ذمہ داریاں ادا نہ کرے تو عورت گھر سنبھال سکتی ہے، مگر اسلامی حدود میں رہ کر، نا کہ بطورِ حاکم یا خودمختار۔


    सवाल 3: क्या इस्लाम में औरत को लीडरशिप या हुकूमत का हक़ मिला है?

    जवाब : आम तौर पर नहीं, खासकर जब मर्द मौजूद हो। रसूलुल्लाह ﷺ ने फरमाया कि वह कौम कामयाब नहीं हो सकती जिसने औरत को हाकिम बनाया हो।

    سوال: کیا اسلام میں عورت کو قیادت یا حکمرانی کا حق حاصل ہے؟
    جواب: عمومی طور پر نہیں، خاص طور پر جب مرد موجود ہو۔ نبی ﷺ نے فرمایا کہ وہ قوم کبھی کامیاب نہیں ہو سکتی جس نے کسی عورت کو حکمران بنایا ہو.


    सवाल 4: क्या मर्द और औरत बराबर नहीं हैं इस्लाम में?

    जवाब : बराबर हैं मगर जिम्मेदारियाँ अलग-अलग हैं। मर्द को क़व्वाम और औरत को मददगार बनाया गया है। दोनों की अहमियत है लेकिन दायरे अलग हैं।

    سوال: کیا مرد اور عورت اسلام میں برابر نہیں ہیں؟
    جواب: برابر ہیں، لیکن ذمہ داریاں مختلف ہیں۔ مرد قوام ہے اور عورت اس کی مددگار۔ دونوں اپنی جگہ اہم ہیں مگر دائرۂ کار الگ ہے۔


    सवाल 5: अगर औरत शौहर की हर बात नहीं माने, तो क्या वह गुनहगार होगी?

    जवाब : अगर शौहर शरीअत के खिलाफ़ कुछ कहे, तो मानना जरूरी नहीं। लेकिन जायज़ बातों में उसका इनकार करना गुनाह और घर के निज़ाम को बिगाड़ने वाला है।

    سوال: اگر عورت شوہر کی ہر بات نہ مانے، تو کیا وہ گناہ گار ہو گی؟
    جواب: اگر شوہر شریعت کے خلاف کوئی بات کہے تو ماننا ضروری نہیں، لیکن جائز باتوں سے انکار کرنا گناہ اور گھر کے نظام کو خراب کرنے والا عمل ہے۔



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