Eid Milad un Nabi Sunnat Ya Bidat/ईद मिलाद-उन-नबी सुन्नत या बिदअत

"सच्ची मोहब्बत नबी ﷺ से तभी साबित होती है जब हम नबी ﷺ के बताए तरीके,कुरआन और सुन्नत के मुताबिक अपनी ज़िंदगी गुज़ारें।नबी ﷺ ने अपनी पैदाइश का जश्न कभी जुलूस, नारे या दिखावे से नहीं मनाया, बल्कि हर सोमवार रोज़ा रखकर याद किया।

Eid Milad un Nabi Sunnat Ya Bidat 

Eid Milad kaise manayen
Eid Milad un Nabi Sunnat Ya Bidat

ईद-मिलाद-उन-नबी ﷺ को लेकर अक्सर लोग सवाल करते हैं कि Eid Milad un Nabi Sunnat Ya Bidat क्या इसे मनाना इस्लाम में सही है या यह सिर्फ़ एक बाद की बिदअत है। बहुत से मुसलमान इसे नबी ﷺ से मोहब्बत का इज़हार मानते हैं, लेकिन हकीकत में सच्ची मोहब्बत और इज़्ज़त उनकी सुन्नत और तालीमात पर अमल करने में है, न कि साल में सिर्फ एक दिन जुलूस, नारे या धूमधाम से दिखावे में।

इस आर्टिकल में हम जानेंगे:
  • ईद-मिलाद मनाना सुन्नत है या बिदअत?
  • नबी ﷺ की असली मोहब्बत और इज़्ज़त का सही तरीका
  • कुरआन और हदीस की रोशनी में सही अमल
  • आम गलतफहमियों और उनकी सच्चाई
अगर आप चाहते हैं कि आपकी मोहब्बत सच्ची और असरदार हो, तो इस लेख Eid Milad un Nabi Sunnat Ya Bidat को ध्यान से पढ़ें और जानें कि ईद-मिलाद-उन-नबी ﷺ को सही तरीके से कैसे याद किया जा सकता है।
is post ko Urdu me yahan padhen
सबसे पहले आप यह जान लें कि ईद मिलाद का जश्न मनाना कोई दीन का हिस्सा नहीं है। न ही नबी करीम ﷺ ने, न ताबेईन और ताबा ताबेईन ने और न ही मुहद्दिसीन के दौर में इसका कोई जिक्र मिलता है। यह बाद की ईजाद है।  नबी ﷺ से मोहब्बत ईमान का हिस्सा है। नबी करीम ﷺ की विलादत से लेकर वफ़ात तक ज़िन्दगी के हर पहलू और सही हालात को सुनना और सुनाना रहमत का कारण है। लेकिन अफ़सोस! आज आम लोग अल्लाह के कलाम और नबी ﷺ के फरमान को छोड़कर दुनियावी कामों और खुराफ़ात में लगे हुए हैं।

इस टॉपिक पर आगे बढ़ने से पहले सोचें कि हम क्या कर रहे हैं और अपनी आने वाली नस्लों को कहाँ ले जा रहे हैं।आप खुद ग़ौर करें कि आज से 20 साल पहले इस दिन को कैसे मनाया जाता था और आज हम या हमारी नस्लें क्या कर रही हैं!

यह कैसी मोहब्बत है नबी ﷺ से?

आज हमारे समाज में ईद मिलाद-उन-नबी ﷺ के नाम पर जो बेहयाई और ग़ैर-इस्लामी काम हो रहे हैं, उनका ज़िम्मेदार कौन है? यह सब देखकर शर्मिंदगी होती है कि नबी ﷺ के नाम पर ऐसे काम हो रहे हैं। मर्द तो मर्द अब औरतें भी इस जश्न में बढ़ चढ़ कर हिस्सा ले रही हैं। जुलूस में शामिल हो रही है सड़कों पर निकल रही हैं। कौन है इसका ज़िम्मेदार?

हर आने वाला साल पिछले साल को शर्मिंदा करता है। हर साल खुराफ़ात में इज़ाफ़ा होता है। और अफ़सोस कि यह सब नबी ﷺ के नाम पर हो रहा है।और आगे आने वाली नस्लें क्या करेगी आप खुद सोचिए क्योंकि बिदॳ़त कभी बांझ नहीं होती हर साल नए नए ख़ुराफ़ात जनम देती है। और जो लोग इसके खिलाफ आवाज़ उठाते हैं उन्हें "गुस्ताख़" और "बुग़ज़-ए-अहले-बैत" का लेबल लगा दिया जाता है।

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इस वीडियो को देखें गुस्ताखों ने गुस्ताख़ी की सारी हदें पार कर दी है। है कोई मिलादी इससे मुतल्लिक़ कुछ फतवा जारी करे। आखिर इसका जिम्मेदार कौन है ? वो वहाबी जो इन खुराफात के खिलाफ आवाज़ उठाता है या खुद ये मिलाद मानने वाले। 




असली मोहब्बत यह है कि हम उनकी सुन्नतों और तालीमात को हर रोज़ अपनाएँ, न कि बिदअत या खुराफ़ात करके और वो भी साल में एक दिन, यह कैसी मोहब्बत है

नबी ﷺ ने उम्मत को हर एक इबादत और अमल से मुतल्लिक तालीम दी?

शरीअत ने पूरी उम्मत को हर एक अमल और इबादत के बारे में स्पष्ट शिक्षा दी है।
जिस नबी ने हमें हर इबादत से मुतल्लिक तालीम दी, जिस नबी ﷺ ने हमें जूता पहनने का तरीका, बाल संवारने का तरीका, कपड़ा पहनने का तरीका, सोने-उठने का तरीका, यहाँ तक कि बाथरूम जाने तक के आदाब सिखाया, क्या वह नबी ﷺ अपने नाम पर जश्न मनाने का तरीका बताना भूल गए थे? (नऊज़ु बिल्लाह)

सोचने वाली बात यह है कि अगर यह इस्लाम में इतनी बड़ी अहमियत रखता, तो अल्लाह किसी नबी को कम से कम एक आयत के जरिए इस बात की जानकारी देते या नबी ﷺ इसे सहाबा को जरूर बताते ताकि कोई इस नेक अमल से वंचित न रहे।

न तो कोई आयत न ही कोई हदीस इस बात की पुष्टि करती है कि ईद-मिलाद मनाना वाजिब या सुन्नत है। जो भी काम बाद में पैदा हुआ और तीनों पीढ़ियों (सहाबा, ताबेईन और ताब-ताबेईन) में नहीं किया गया, वह कभी सुन्नत नहीं हो सकती; इसे सिर्फ बिदअत कहा जा सकता है।



ईद मिलादुन्नबी ﷺ और असली मोहब्बत का पैग़ाम

हर मुसलमान के लिए फ़र्ज़ है कि वह नबी करीम ﷺ की ज़िंदगी के हालात मालूम करे और उन्हें अपनी ज़िंदगी के लिए मशअल-ए-राह बनाए। नबी ﷺ के फ़ज़ाइल (ख़ूबियाँ) और मोज़िज़ात बयान करना, आपका ज़िक्र-ए-ख़ैर करना, आपकी मोहब्बत और तालीमात का सबक देना — यही असल ईमान और मुहब्बत की पहचान है।

नबी ﷺ से सच्ची मोहब्बत यह नहीं कि साल में सिर्फ़ एक दिन जुलूस या जलसा करके दिखाया जाए, बल्कि असली मोहब्बत यह है कि हर दिन, हर महीने, हर घंटे और हर मिनट नबी ﷺ की सुन्नत और तालीमात को ज़िंदगी में उतारा जाए। अगर ईद मिलादुन्नबी मनानी है, तो फिर इसी अंदाज़ में मनानी चाहिए।

ईद मिलादुन्नबी और इख़्तिलाफ़ की हक़ीक़त

जहाँ तक इख़्तिलाफ़ की बात है, तो असल मतभेद यह है कि रबीउल-अव्वल की बारहवीं तारीख़ या किसी और दिन को ख़ास मुक़र्रर करके झंडियाँ लगाना, आतिशबाज़ी करना, जुलूस निकालना या फ़क़ीरों को खाना खिलाना — यह सब अमल कुरआन, हदीस और सहाबा-ए-कराम के ज़माने से साबित नहीं है।

सवाल यह है कि सहाबा-ए-कराम, ताबेईन और ख़ैरुल-क़ुरून के नेक लोग कौन-सी झंडियाँ लगाकर ईद मिलादुन्नबी मनाते थे? उन्होंने कौन-से जुलूस निकाले थे? हक़ीक़त यह है कि यह सब अमल इस्लामी इतिहास में बहुत बाद में, यानी आठवीं सदी हिजरी में, आप ﷺ के विसाल के लगभग आठ सौ साल बाद शुरू हुआ।

नतीजा

अगर कोई अमल नबी ﷺ, सहाबा-ए-कराम और शुरुआती मुसलमानों (ख़ैरुल-क़ुरून) से साबित न हो, तो उसे दीन का हिस्सा समझना कैसे जाइज़ हो सकता है? असली मोहब्बत नबी ﷺ से यह है कि उनकी सुन्नत पर अमल किया जाए, उनकी तालीमात को फैलाया जाए और ज़िंदगी के हर पहलू में उन्हें अपनाया जाए। यही है नबी ﷺ से सच्ची ईद मिलादुन्नबी मनाना।

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नबी ﷺ की हदीस और अल्लाह का फ़रमान

रसूलुल्लाह ﷺ ने फ़रमाया:

जिसने कोई अच्छा तरीक़ा (सुन्‍नत) जारी किया और लोगों ने उस पर अमल किया, तो उसे अपने अमल का अज्र (सवाब) भी मिलेगा और उन सबका भी अज्र मिलेगा जो उस पर अमल करेंगे, बिना इसके कि उनके सवाब में कोई कमी की जाए। और जिसने कोई बुरा तरीक़ा शुरू किया और लोग उस पर अमल करने लगे, तो उस पर अपने गुनाह का बोझ भी होगा और उन सबका भी गुनाह होगा जो उस पर अमल करेंगे, बिना इसके कि उनके गुनाह में कोई कमी की जाए।"
📕 (जामिअ तिर्मिज़ी: हदीस 2675)

सूरह अन-निसा, आयत 14 में अल्लाह तआला फ़रमाता है:
और जो शख़्स अल्लाह और उसके रसूल ﷺ की नाफ़रमानी करे और उसकी मुक़र्रर की गई हदों से आगे निकल जाए, तो अल्लाह उसे जहन्नम में डाल देगा, जिसमें वह हमेशा रहेगा। और ऐसे लोगों के लिए रुस्वा करने वाला अज़ाब है।

नतीजा और हमारा मुहासिबा

अब हमें चाहिए कि हम ख़ुद अपना मुहासिबा करें कि हम कितनी हद तक अल्लाह और उसके रसूल ﷺ की इताअत कर रहे हैं। क्या हमारा अमल अल्लाह की मुक़र्रर की गई हदों के दायरे में है या उससे आगे निकल चुका है

असली ईमान यह है कि हम नबी ﷺ की सुन्‍नत को अपनाएँ, उनके बताये हुए तरीक़े को ज़िंदगी में उतारें और हर उस काम से बचें जो दीन में बाद में ईजाद हुआ और न सहाबा-ए-कराम से साबित है और न ख़ैरुल-क़ुरून से।


मिलाद-उन-नबी ﷺ मनाने का सही तरीका है उनके बताए हुए तरीक़ों पर चलना, जैसे रोज़ा, दुआ और उनके उदाहरण को याद रखना।

नेमत का चर्चा/ज़िक्र 

कुरआन का हुक्म

नेमत (अनुकंपा और रहमत) का ज़िक्र करना और उसका इज़हार करना, यह भी कुरआन का हुक्म है।
अल्लाह तआला फ़रमाता है:
“ऐ नबी ﷺ! आप अपने रब की नेमतों का खूब चर्चे करें।”
📖 (सूरह अ-दुहा : 11)

गलत ताबीर
लेकिन अफ़सोस कि इस आयत को भी कुछ उलमा ने ईद मिलादुन्नबी से जोड़ कर लोगों को गुमराही के रास्ते पर डाल रखा है। जबकि हक़ीक़त यह है कि इस आयत का तअल्लुक़ किसी ख़ास दिन या जलूस-जंडियों से नहीं है।

नेमत का असल इज़हार

नेमतों का चर्चे करने का सही तरीक़ा यह है कि:
इंसान अपनी ज़ुबान से अल्लाह का शुक्र अदा करे।
यह इकरार करे कि जो भी नेमतें मुझे मिली हैं, यह सब अल्लाह का फ़ज़्ल और एहसान है, मेरा अपना कोई कमाल नहीं।

नेमत-ए-नुबूवत का इज़हार

नुबूवत (पैग़म्बरी) की नेमत का इज़हार इस तरह हो सकता है कि:

हम दावत व तब्लीग़ का हक़ अदा करें।
नबी ﷺ की सीरत और तालीमात को अपनी ज़िंदगी में अपनाएँ।

नेमत-ए-कुरआन का इज़हार

कुरआन की नेमत का इज़हार इस तरह हो सकता है कि:

लोगों में कुरआन की तालीम को फैलाया जाए।
उसकी हिदायत को लोगों के दिलों और ज़हन में बैठाया जाए।

नेमत-ए-हिदायत का इज़हार

हिदायत (सीधा रास्ता) की नेमत का इज़हार यह है कि:

अल्लाह की भटकी हुई मख़लूक़ को सही रास्ता दिखाया जाए।
लोगों को तौहीद और सुन्नत की ओर बुलाया जाए।


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नबी ﷺ ने अपनी पैदाइश के दिन क्या किया?

सहीह मुस्लिम की हदीस

रसूलुल्लाह ﷺ ने अपनी पैदाइश के दिन कोई जलूस या मेला नहीं मनाया, बल्कि हर सोमवार का रोज़ा रखा।
📖 सहीह मुस्लिम (हदीस: 2750)

हदीस का मज़मून:
हज़रत अबू क़तादा अंसारी (रज़ि.) से रिवायत है कि रसूलुल्लाह ﷺ से सोमवार के रोज़े के बारे में पूछा गया, तो आपने फ़रमाया:
“इसी दिन मेरी पैदाइश हुई और इसी दिन मुझ पर (कुरआन) नाज़िल किया गया।”

असल सुन्नत

यहाँ साफ़ नज़र आता है कि नबी ﷺ ने अपनी पैदाइश के साथ-साथ कुरआन के नुज़ूल (उतारने) का भी “जश्न” मनाया — लेकिन किस तरह?
👉 रोज़ा रखकर!

🛑 सवाल करने लायक बात

अब सोचिए:
अगर हमें नबी ﷺ से मोहब्बत है तो हमें भी उसी तरह करना चाहिए जैसा आपने किया।
लेकिन अफ़सोस, आज लोग कहते तो हैं कि “हम मोहब्बत में जश्न मना रहे हैं”, मगर उनका तरीका बिल्कुल उल्टा है।

आज का हाल

आज के दौर में पैदाइश के दिन:
जलूस और झंडे निकाले जाते हैं।
सड़कें जाम की जाती हैं।
गाने-बजाने और नाच-गाने तक होते हैं
और उसी दिन पाँच वक्त की नमाज़ तक क़ुर्बान कर दी जाती है। आखिर इसका जिम्मेदार कौन है? 

असल मोहब्बत क्या है?

असल मोहब्बत यह है कि:

हम नबी ﷺ की बताई सुन्नत को ज़िंदा करें।
सोमवार को रोज़ा रखें।
नबी ﷺ की सीरत और कुरआन की तालीम को अपनी ज़िंदगी में लागू करें।
न की जुलूस झंडिया निकालें सड़कों पर खुराफात करें। ये कैसी मोहब्बत है नबी से।

नबी ﷺ की मोहब्बत का असली इज़हार है उनकी शिक्षा और आदर्शों को ज़िंदगी में उतारना, न कि सिर्फ़ एक दिन का दिखावा। इस तरह हम अल्लाह और रसूल ﷺ के करीब आएँगे और अपने ईमान को मजबूत करेंगे।

असल मोहब्बत का तक़ाज़ा

मोहब्बत का सही मतलब

अल्लाह से मोहब्बत का तक़ाज़ा उसकी रसूल ﷺ की पूरी इताअत (पैग़म्बर की आज्ञा मानना) है।
और रसूलुल्लाह ﷺ से मोहब्बत का तक़ाज़ा उनकी सुन्नत की पैरवी (अनुसरण) करना है।
यही है असली मोहब्बत।

📖 अल्लाह तआला कुरआन (सूरह आले-इमरान 3:31) में फ़रमाता है:
“कह दीजिए (ऐ नबी ﷺ), अगर तुम अल्लाह से मोहब्बत रखते हो तो मेरी इताअत करो, (उसका नतीजा यह होगा कि) अल्लाह भी तुमसे मोहब्बत करेगा और तुम्हारे गुनाह माफ़ कर देगा। और अल्लाह बड़ा बख़्शने वाला और रहमत वाला है।

हदीस की रोशनी में

📕 सहीह बुख़ारी (हदीस: 7280) में नबी ﷺ का फ़रमान है:

“मेरी उम्मत के सब लोग जन्नत में जाएँगे सिवाय उन लोगों के जिन्होंने इनकार किया।”
सहाबा ने पूछा: “या रसूलुल्लाह! इनकार कौन करेगा?”
तो आपने फ़रमाया: “जो मेरी इताअत करेगा वह जन्नत में दाख़िल होगा, और जो मेरी नाफ़रमानी करेगा उसने इनकार किया।”

अपना जायज़ा लें

अब हमें खुद देखना चाहिए कि:
हम नबी ﷺ की कितनी सच्ची पैरवी करते हैं?
और कितनी मोहब्बत का दावा सिर्फ़ ज़बान से करते हैं?

सहाबा का तरीका

अगर जुलूस निकालना, झंडियाँ लगाना और सड़कें जाम करना मोहब्बत की निशानी होता,

तो सबसे पहले सहाबा-ए-किराम (रज़ि.अन्हुम) ऐसा करते।
लेकिन हक़ीक़त यह है कि:
किसी सहाबी, ताबेई या तबा-ताबेई ने “ईद मिलादुन्नबी” का नाम तक इस्तेमाल नहीं किया।
जबकि वे नबी ﷺ से सबसे ज्यादा मोहब्बत करने वाले और सबसे ज्यादा इल्म रखने वाले थे।

असल मोहब्बत कैसे करें?

जरूर जश्न मनाएँ, लेकिन सुन्नत के मुताबिक़:
जलूस, झंडे, डीजे, नाच-गाने और सड़क जाम करने से नहीं।
बल्कि मजलिसें और जलसे करें।
नबी ﷺ की शान-ओ-अज़मत, फ़ज़ाइल, मोज़िज़ात और आपकी तालीमात का ज़िक्र करें।
और यह काम साल में सिर्फ़ एक दिन नहीं, बल्कि हर हफ़्ते, हर महीने और हर दिन होना चाहिए।

🤲दुआ

अल्लाह हमें असल दीन की समझ अता करे और हमें हक़ की राह पर चलने की तौफ़ीक़ बख़्शे। आमीन।

मौलिद या ईद-मिलाद-उन-नबी मनाना न तो सुन्नत है और न ही इस्लाम का हिस्सा। यह एक बाद की ईजाद है। असली मोहब्बत यह है कि हम हर दिन नबी ﷺ को याद करें, उनकी सुन्नतों पर अमल करें और उनकी बताई हुई सीरत को अपनी जिंदगी का हिस्सा बनाएं। यही मोहब्बत है, यही ताज़ीम है, और यही सही रास्ता है।


मिलाद-उन-नबी ﷺ से जुड़ी कुछ आम गलतफहमियाँ

1️⃣ क्या मिलाद-उन-नबी ﷺ सुन्नत है?

बहुत से लोग समझते हैं कि मौलिद या ईद-मिलाद-उन-नबी मनाना सुन्नत है, जबकि हकीकत में यह एक स्पष्ट बिदअत (नवाचार) है। किसी चीज़ को सुन्नत कहलाने के लिए यह ज़रूरी है कि वह नबी ﷺ, सहाबा-ए-किराम या ताबेईन से साबित हो। लेकिन "मौलिद" का कोई सबूत न तो कुरआन से और न ही सही हदीस से मिलता है। बल्कि यह रसूल ﷺ की वफ़ात के कई सदी बाद शुरू हुआ। इसलिए इसे सुन्नत कहना ग़लत है।

2️⃣ क्या यह "अच्छी बिदअत" (बिदअत-ए-हसना) है?

कुछ लोग कहते हैं कि "मिलाद अच्छी बिदअत है" लेकिन इस्लाम में कोई भी बिदअत अच्छी नहीं होती।
रसूल ﷺ ने फ़रमाया:
👉 "हर बिदअत गुमराही है और हर गुमराही जहन्नम की तरफ ले जाती है।" 📕 (सुनन-नसाई: 1578)

एक और हदीस में नबी ﷺ ने फरमाया:
👉 "जिसने ऐसा अमल किया जिस पर हमारा कोई अमल नहीं है, वह अमल مردूद है।" 📕 (सहीह बुखारी: 2697)

3️⃣ क्या यह रसूल ﷺ की ताज़ीम के लिए है?

अगर वाकई "मिलाद" रसूल ﷺ की ताज़ीम होती, तो सबसे पहले सहाबा-ए-किराम इसे मनाते। लेकिन किसी सहाबी ने, किसी ताबेईन ने, और किसी तबा-ताबेईन ने कभी "मौलिद" नहीं मनाया।
क्या हम उनसे ज़्यादा नबी ﷺ की इज़्ज़त और मोहब्बत कर सकते हैं? बिल्कुल नहीं।

4️⃣ क्या इससे रसूल ﷺ को याद किया जाता है?

कहते हैं कि "मिलाद से नबी ﷺ को याद किया जाता है।"
लेकिन सच्चा आशिक़ हर वक्त अपने महबूब को याद रखता है, न कि साल में सिर्फ़ एक दिन।
नबी ﷺ को याद करने के लिए किसी खास दिन की ज़रूरत नहीं है। असली मोहब्बत यह है कि रसूल ﷺ की सुन्नत और तालीमात को हर दिन की जिंदगी में अपनाया जाए।

5️⃣ क्या यह नबी ﷺ से मोहब्बत का इज़हार है?

अगर हम सचमुच मोहब्बत करना चाहते हैं, तो हमें उसी तरीके से करनी होगी जो कुरआन और हदीस ने बताया है।
कुरआन में अल्लाह का फ़रमान है:
📖 "अगर तुम अल्लाह से मोहब्बत करते हो, तो मेरी इताअत करो, अल्लाह तुमसे मोहब्बत करेगा।" (सूरह आल-इमरान: 31)

और एक और जगह फरमाया गया:
📖 "जिसने रसूल की इताअत की, उसने दरअसल अल्लाह की इताअत की।" (सूरह निसा: 80)

इसलिए असली मोहब्बत यह नहीं कि जुलूस निकाले जाएँ, डीजे बजे, या गाने-नाच हों। बल्कि असली मोहब्बत यह है कि हम नबी ﷺ की सुन्नतों और फरमानों पर अमल करें और अपनी जिंदगी को उसी रास्ते पर ढालें जो उन्होंने बताया।


📌 Conclusion:

अल्लाह और उसके रसूल ﷺ से सच्ची मोहब्बत सिर्फ़ उसी वक्त साबित होती है जब हम अपनी ज़िंदगी को कुरआन और सुन्नत के मुताबिक ढालें। नबी ﷺ ने अपनी पैदाइश का जश्न मनाने के लिए कभी कोई जुलूस, नारे या दिखावा नहीं किया, बल्कि हर सोमवार रोज़ा रखकर अपनी पैदाइश और कुरआन के नुज़ूल की याद ताज़ा की।अब समझ में आ गया होगा कि Eid Milad un Nabi Sunnat Ya Bidat है। 

आज अगर हम सच में नबी ﷺ से मोहब्बत का दावा करते हैं तो हमें उन्हीं के तरीक़े पर चलना होगा—न कि अपनी तरफ़ से नए तौर-तरीक़े और बिदअत ईजाद करनी होंगी। असली मोहब्बत यह है कि हम उनकी सुन्नतों को ज़िन्दगी के हर पहलू में अपनाएँ, उनकी तालीमात को अमल में लाएँ और उनके अख़लाक़ को अपनी पहचान बनाएँ।

इसलिए हमें चाहिए कि हम मिलाद-उन-नबी ﷺ को बिदअत और खुराफ़ात से अलग रखकर, नबी ﷺ के बताए हुए तरीके यानी सोमवार के रोज़े और उनकी सुन्नतों को ज़िन्दगी में अपनाकर ही अपने ईमान और मोहब्बत को साबित करें। यही असली मोहब्बत है, यही असली इबादत है, और यही हमें अल्लाह और उसके रसूल ﷺ के क़रीब ले जाएगी।


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🤲अल्लाह हमें हक़ीक़ी मोहब्बत और सही दीन की समझ अता करे। आमीन या रब्ब-ल-आलमीन।


FAQs

सवाल 1: क्या ईद मिलाद-उन-नबी ﷺ मनाना जायज़ है?
❌ जवाब: नहीं, यह न दीन का हिस्सा है और न जायज़। यह बाद की ईजाद है, जिसकी असल ईसाइयों और गैर-मुस्लिम क़ौमों से ली गई है।

सवाल 2: ईद मिलाद के दौरान होने वाली ख़ुराफ़ात क्या हैं?
✔️ जवाब: जलूस, बेहयाई, नाच-गाना, सड़कों का जाम, फ़िज़ूल ख़र्ची, और ग़ैर-इस्लामी रस्में।

सवाल 3: क्या ईद मिलाद पर जलूस निकालना जायज़ है?
❌ जवाब: नहीं, यह दीन में बिदअत है। न सहाबा से साबित है और न ही शरीअत से।

सवाल 4: ईद मिलाद पर चराग़ाँ (लाइटिंग) करना कैसा है?
✔️ जवाब: कुछ उलमा इसे जायज़ कहते हैं, कुछ इसे फ़िज़ूल-ख़र्ची और बिदअत मानते हैं।

सवाल 5: नात-ख़्वानी की महफ़िलें करना कैसा है?
✔️ जवाब: अगर ग़ैर-शरीअती अमल या शिर्किया अल्फ़ाज़ न हों तो नात-ख़्वानी की महफ़िल जायज़ है। लेकिन अस्ल मक़सद नबी ﷺ की सीरत, तालीमात और मोहब्बत का बयान हो, और यह साल भर हो, सिर्फ़ एक दिन नहीं।

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