Qadri Sahab Aur Waseela /क़ादरी साहब और वसीला
इंसान की फितरत है कि जब उसे किसी चीज़ की ज़रूरत होती है, तो वह उसे पाने के लिए हर मुमकिन रास्ता अपनाता है। कभी वह सीधे माँगता है, तो कभी किसी के ज़रिए सिफ़ारिश करवाता है। यह आदत सिर्फ़ दुनियावी मामलों तक सीमित नहीं रहती, बल्कि कई बार इंसान अपने रब से माँगने में भी दूसरों का वसीला तलाश करने लगता है।
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लेकिन क्या यह तरीका सही है? क्या अल्लाह अपने बंदों की दुआ सिर्फ़ किसी बुज़ुर्ग, किसी वली, या किसी सिफ़ारिशी के ज़रिए ही सुनता है? इसी गहरी सोच को दर्शाता है यह संवाद, Qadri Sahab Aur Waseela जिसमें क़ादरी साहब की नाराज़गी एक बड़े सवाल का जवाब बन जाती है।
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कुछ ख़ास बातें:
आज मुस्लिम उम्मत इस्लाम से दूर होते-होते बुज़ुर्ग परस्ती (व्यक्तिपूजा) से क़ब्र परस्ती और फिर बुतपरस्ती तक पहुँच चुकी है।आज हमारे समाज में बहुत सी ज़िंदा मिसालें मौजूद हैं जहाँ कम अक़्ल मुसलमानों ने अपनी सोच को छोड़कर नूह़ (अलैहिस्सलाम) की क़ौम की तरह अपने नेक बुज़ुर्गों की क़ब्रों को सज्दा करने की जगह बना लिया है।
और यह शिर्क वाला अमल सिर्फ़ क़ब्रों या बुज़ुर्गों तक ही सीमित नहीं रहा, बल्कि अब यह बढ़ते-बढ़ते बुतपरस्ती तक पहुँच चुका है। आज कई बड़ी हस्तियों के बुत (मूर्तियाँ) बनाए जा चुके हैं — भले ही अभी उनकी इबादत शुरू नहीं हुई हो, लेकिन यह कहा जाता है कि उन्हें देखकर हमें उनके जैसे काम करने की प्रेरणा मिलती है।
लेकिन यह भी मुमकिन है कि आने वाली नई नस्लें इन मूर्तियों की बाकायदा पूजा करना शुरू कर दें। और एक हक़ीक़त यह भी है कि जहाँ बुत परस्ती होती है, वहाँ बुत-शिकन (मूर्तिभंजक) भी पैदा होते हैं — और यही जगहें आगे चलकर मज़ार, दरगाह और इबादतगाह बन जाती हैं।
यह सोचने की बात है कि इंसान जब अल्लाह के साथ दूसरों को शरीक करता है, तो उसे यही असल दीन समझ बैठता है — यानी अपने पीरों, बुज़ुर्गों का वसीला बनाना, उन्हें सिफ़ारिशी बनाना, उनसे दुआ करना और अपनी ज़रूरतें पूरी करवाना।
लेकिन जब यही मामला उसकी अपनी ज़िंदगी में होता है — यानी कोई उसके और उसके अधिकार के बीच किसी और को ला खड़ा करे — तो वह इसे बर्दाश्त नहीं कर पाता।
यही हक़ीक़त इस संवाद Qadri Sahab Aur Waseela में बख़ूबी बयान की गई है। इसे पढ़ें और गौर फिक्र करें।
१. ग़ुस्से से भरे क़ादरी साहब
क़ादरी साहब ग़ुस्से से भरे हुए घर में दाख़िल हुए। उनका चेहरा तमतमाया हुआ था, आँखों में ग़ुस्से की लपटें साफ़ झलक रही थीं।बेगम!" उन्होंने तेज़ आवाज़ में पुकारा।यह सुनकर क़ादरी साहब का ग़ुस्सा और भड़क उठा। उन्होंने लगभग दहाड़ते हुए कहा, "क्या मैं घर में नहीं था? क्या मैं मर गया था? मुझसे सीधा क्यों नहीं माँगा? शेख़ से क्यों कहा?"
बीवी घबराई हुई दौड़ी आई, "ख़ैर तो है? क्या हो गया?"
क़ादरी साहब ने बिना भूमिका के सीधा सवाल किया, "तुम शेख़ साहब के घर गई थीं?"
बीवी ने धीमे से जवाब दिया, "हाँ, गई थी।"
"और उनसे कहा कि वो मुझसे कहें कि तुम्हें शॉपिंग के लिए पैसे दूं?"
बीवी ने बेझिझक स्वीकार किया, "हाँ, कहा था।
बीवी ने मासूमियत से जवाब दिया, "अल्लाह न करे! माँगा तो आप ही से है। बस सोचा कि अगर आप पैसे देने से मना कर दें, तो आपके दोस्त की सिफ़ारिश से शायद मिल जाए।"
२. क़ादरी साहब का ग़ुस्सा और बढ़ा
इतना सुनना था कि क़ादरी साहब और भड़क गए,चीखते हुए कहा "दिमाग़ ठीक है तुम्हारा? घर में रहते हुए तुमने मुझसे कहने के बजाय बाहर जाकर मेरे दोस्त से कहा कि वो मुझसे बोले? वो क्यों बोले मुझसे?"
बीवी ने फिर बड़ी मासूमियत से जवाब दिया, "वो आपके इतने क़रीबी दोस्त हैं, उनकी बात की आपकी नज़र में ज़्यादा अहमियत होगी।"
क़ादरी साहब ने अपने बाल नोचने से ख़ुद को मुश्किल से रोका और ग़ुस्से में बोले, "दोस्त की अहमियत अपनी जगह है, लेकिन इसका ये मतलब नहीं कि मेरी बीवी, मेरे बच्चे, मेरे माता-पिता या बहनें अपनी ज़रूरत के लिए मुझसे कहने के बजाय मेरे दोस्त के पास जाएँ!"
उन्होंने आगे कहा, "अगर मेरे अपने मुझसे अपनी ज़रूरत नहीं बताएंगे, तो फिर किससे कहेंगे? क्या मैंने कभी कहा कि अपनी ज़रूरतें मेरे दोस्त को बताओ? क्या मेरे दोस्त ने तुम्हें बुलाया था कि आओ और अपनी ज़रूरतें बताओ?"
क़ादरी साहब की आँखों में नाराज़गी के साथ-साथ बेबसी भी झलकने लगी। उन्होंने तक़रीबन रोते हुए कहा, "तुमने आज मुझे मेरे दोस्त के सामने शर्मिंदा कर दिया। पता नहीं, वो मेरे बारे में अब क्या सोच रहा होगा।"
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३. बीवी का जवाब और क़ादरी साहब की सोच
बीवी ने इस बार गंभीर लहजे में कहा, "माफ़ी चाहती हूँ।आप तो सिर्फ़ एक छोटे से परिवार के मुखिया हैं, और आपके ग़ुस्से की कोई हद नहीं रही कि मैंने आपके दोस्त से सिफ़ारिश की मख़लूक़ होते हुए कभी दामाद-ए-रसूल (ﷺ) से मुश्किलें हल करवाना चाहते हैं, कभी बाबा फरीद के दर पर कारोबार की बरकत माँगते हैं, कभी सिहवन शरीफ जाते हैं, तो कभी शेख़ अब्दुल क़ादिर जीलानी (रह.) को पुकारते हैं। और जब कोई रोकता है, तो कहते हैं कि हम माँग तो अल्लाह से ही रहे हैं, बस उसके सच्चे दोस्तों के वसीले से!"
बीवी ने आगे कहा, "अज़ान में दिन में पाँच बार अल्लाह हमें 'हय्या अ’लल फ़लाह' (आओ, सफलता की तरफ़) कहकर बुलाता है। आप मस्जिद जाते क्यों नहीं? और अगर जाते हैं, तो क्या वहाँ अपनी ज़रूरतें अल्लाह से नहीं माँग सकते?"
बीवी की बातें अब सीधे क़ादरी साहब के दिल पर लगने लगीं।बीवी ने बात आगे बढ़ाते हुए कही
"अल्लाह ख़ुद फ़रमाता है: तुम मुझे पुकारो, मैं तुम्हारी पुकार सुनूंगा…"
रसूलुल्लाह ﷺ ने फ़रमाया:और सूरह अल-बक़रह, आयत 186 में अल्लाह साफ़ फ़रमाता है:
"जब रात का अंतिम तीसरा हिस्सा बाकी रह जाता है, तो हमारा सबसे बड़ा और सबसे महान पालनहार आसमाने-दुनिया पर नाज़िल होता है और कहता है:
'कौन है जो मुझसे दुआ करे, ताकि मैं उसकी दुआ क़ुबूल करूं?
कौन है जो मुझसे मांगे, ताकि मैं उसे अता करूं?
कौन है जो मुझसे माफ़ी मांगे, ताकि मैं उसे माफ़ कर दूं?'
(सहीह अल-बुखारी)
"और (ऐ नबी ﷺ) जब मेरे बंदे तुमसे मेरे बारे में पूछें, तो कह दो: मैं तो क़रीब ही हूं। जब कोई मुझे पुकारता है, तो मैं उसकी पुकार सुनता हूं और जवाब देता हूं। उन्हें भी चाहिए कि मेरी बात मानें और मुझ पर ईमान लाएं — शायद कि वे राहे-रास्त पा जाएं।"इन आयतों और हदीसों को सुनाने के बाद बीवी ने कहा:
जब अल्लाह ख़ुद हमारी पुकार और दुआ सुन रहा है, तो फिर आप क्यों दर-दर भटकते हैं सिफ़ारिश के लिए?
अल्लाह तो हमारी ज़ुबान से पहले हमारे दिलों में उठने वाले खयालों को भी जानता है, तो फिर यह वसीला और सिफ़ारिश कहां से आ गई?
अमल-ए-सालिह (नेक काम) और सीधी दुआ से बढ़कर कोई सिफ़ारिश या वसीला नहीं हो सकता।
आप कैसे सोच सकते हैं कि:
ऐसी सोच रखना भी गुनाहे-क़बीरा (बहुत बड़ा गुनाह) है।
शायद अब आप समझ गए होंगे कि मैं आपके दोस्त के पास क्यों गई थी।
बीवी ने यह कहकर बात ख़त्म की और कमरे से बाहर चली गईं।क़ादरी साहब वहीं बैठे रहे, फिर धीरे से एसी चालू किया और पसीना सुखाने लगे।
- आप अल्लाह के फरमाबरदार बनें,
- उसके हुक्मों पर अमल करें,
- उससे सच्ची मोहब्बत करें,
- और वह आपकी दुआ न सुने?
ऐसी सोच रखना भी गुनाहे-क़बीरा (बहुत बड़ा गुनाह) है।
बस हम अपनी गुनाहों से भरी ज़िंदगी छोड़कर एक अल्लाह को दिल से पुकारकर तो देखें, इंशा’अल्लाह हर परेशानी दूर होगी, हर मुश्किल आसान हो जाएगी।
और जब आपने अल्लाह को अपनी ज़रूरतें बता दीं, तो फिर बुज़ुर्गों के दर पर जाकर माँगने की क्या ज़रूरत रह जाती है?
क्या किसी बुज़ुर्ग ने कहा है कि "अल्लाह ने हमें तुम्हारी मुश्किलें दूर करने का हक़ दिया है"?
क्या अल्लाह ने कहा है कि "मुझे मेरे दोस्तों के ज़रिए पुकारोगे तो ही मैं सुनूंगा"?
जब आपको अपनी मामूली सी मुख़ियाई में अपने सबसे क़रीबी दोस्त की भी दख़लअंदाज़ी मंज़ूर नहीं होती, तो फिर आप ख़ालिक़-ए-कायनात (संसार के रचयिता) से यह उम्मीद कैसे रख सकते हैं?
शायद अब आप समझ गए होंगे कि मैं आपके दोस्त के पास क्यों गई थी।
बीवी ने यह कहकर बात ख़त्म की और कमरे से बाहर चली गईं।क़ादरी साहब वहीं बैठे रहे, फिर धीरे से एसी चालू किया और पसीना सुखाने लगे।
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Conclusion:
यह कहानी सिर्फ़ क़ादरी साहब और उनकी बीवी की नहीं, बल्कि उन तमाम लोगों की है जो ख़ुद तो सिफ़ारिश पसंद नहीं करते, लेकिन अल्लाह से माँगते समय किसी और के वसीले की उम्मीद रखते हैं। बीवी ने जिस मासूमियत से अपने शौहर के ग़ुस्से को उनके ही अमल से जोड़ा, वह सोचने पर मजबूर कर देता है। अगर एक इंसान अपने घर के मामूली फ़ैसलों में किसी बाहरी दख़लअंदाज़ी को गवारा नहीं करता, तो क्या यह मुमकिन है कि अल्लाह, जो पूरी कायनात का मालिक है, वह अपने बंदों की दुआ को किसी और के ज़रिए सुनना पसंद करेगा? यह संवाद हमें अपने रिश्ते और अपनी इबादत, दोनों को एक नए नज़रिए से देखने का मौक़ा देता है।ख़ुदा के लिए! ऐसे शिर्क से भरे अकीदे और अमल से बचिए,
और जो भी माँगना हो, सीधे अल्लाह से माँगिए —
ताकि हमारी दुनिया और आख़िरत, दोनों बर्बाद होने से बच सकें।
अल्लाह तआला हमें सीधा रास्ता (सिरातुल मुस्तक़ीम) अपनाने की तौफ़ीक़ अता फरमाए।
आमीन या रब्बुल 'आलमीन।
वअल्हम्दु लिल्लाहि रब्बिल 'आलमीन।
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FAQs —
FAQs —
नहीं। अल्लाह ने कुरआन में फ़रमाया: "मुझसे दुआ करो, मैं तुम्हारी दुआ कबूल करूंगा"। बंदा सीधा अल्लाह से दुआ कर सकता है — बिना किसी वसीले के।
अगर कोई समझे कि बुज़ुर्ग खुद कुछ दे सकते हैं, तो यह शिर्क हो सकता है। लेकिन वसीले को अल्लाह तक पहुँचने का ज़रिया मानना भी ग़लत है, क्योंकि इस्लाम में इसका सबूत नहीं।
क़ादरी साहब को यह अच्छा नहीं लगा कि बीवी ने किसी और के ज़रिए उनसे माँगा — ठीक उसी तरह जैसे अल्लाह भी चाहता है कि बंदा सीधे उससे माँगे।
रसूल ﷺ ने कभी यह नहीं सिखाया कि मेरी या किसी वली की सिफ़ारिश से माँगो। सुन्नत के मुताबिक दुआ सीधे अल्लाह से करनी चाहिए।
इस्लाम में क़ब्र की ज़ियारत दुआ और इबरत के लिए है, माँगने के लिए नहीं। माँगना सिर्फ़ अल्लाह से करना चाहिए।
अल्लाह के नामों का वसीला लें जैसे "या रहीम", "या ग़फ़ूर"। यह कुरआन से साबित वसीला है और सबसे सही तरीका है।
क्योंकि बीवी ने उनकी ग़लती उन्हीं की रोज़मर्रा की ज़िंदगी से समझाई, जिससे बात सीधा दिल पर लगी।
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