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Yaum e Arfa/यौम ए अरफा़

Yaum e Arfa/यौम ए अरफा़

Yaum e Arfa/यौम ए अरफा़
Yaum e Arfa/यौम ए अरफा़


Yaum e Arfa यानी हज का दिन, 9 ज़िलहिज्जा के दिन हाजी मक्का शहर के करीब अराफात के मैदान में इकट्ठा हो कर हज अदा करेंगे



    चाहे किसी देश का राजा , राष्ट्रपति व प्रधानमंत्री हो या आम आदमी चाहे धन्ना सेठ हो या मामूली मजदूर गोरा हो या काला , अमरीकी हो या अफ्रीकी या एशियन सब के सब एक जगह हाज़िर होंगे
    वह अपने बीच के हर भेदभाव को छोड़ चुके होंगे उनके कपड़े एक जैसे , उनकी चप्पलें तक लगभग एक जैसी होंगी सबके सब नंगे सर होंगे और उनकी जुबानों पर होगा

    " लब्बैक अल्लाहुम्मा लब्बैक , लब्बैक ला शरीका लक लब्बैक , इन्नल हम्दा वन्नेमता लका वलमुल्क, ला शरीका लक"
    मैं उपस्थित हूं हे अल्लाह मैं उपस्थित हूं , मैं उपस्थित हूं तेरा कोई शरीक नहीं मैं उपस्थित हूं , हर प्रकार की प्रशंसा व नेमतें और बादशाहत तेरे लिए है , तेरा कोई शरीक साझीदार नहीं
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    हाजी लोग सुबह मिना में फर्ज की नमाज़ अदा करेंगे फिर सूरज निकलने के बाद किसी सवारी से या पैदल अराफात के मैदान निकल पड़ेंगे जो मिना से दस किलोमीटर की दूरी पर स्थित है

    अराफात पहुंच कर दुआओं में मशगूल हो जाएंगे अराफात में पढ़ी जाने वाली दुआओं में एक खास दुआ भी है

    " ला इलाहा इल्ला अल्लाहु वहदऊ , ला शरीका लहु , लहुल मुल्कु व लहुल अलहम्दु , व हुवा अला कुल्ले शयइन क़दीर "
    अल्लाह अकेले को छोड़कर कोई इबादत के योग्य नहीं , उसका कोई शरीक नहीं , उसी के लिए बादशाहत है , उसी के लिए हर प्रकार की प्रशंसा है वह हर चीज़ पर कुदरत रखता है
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    अराफात के मैदान में ज़ुहर और अस्र की नमाज़े एक साथ पढ़ी जाएंगी और चार के बजाय दो दो रकात पढ़ी जाएंगी नमाज़ के साथ ही इमाम का ख़ुत्बा होगा

    हाजी पूरे दिन इबादतों और दुआओं में लगे रहेंगे यहां तक कि सूरज डूब जाएगा और मगरिब की नमाज का समय हो जाएगा लेकिन हाजी मगरिब की नमाज अदा किए बगैर वहां से मिना के मैदान के लिए वापस होंगे

    Yaum e Arfa aur us din ka roza:-

    और रास्ते में 6 किलोमीटर की दूरी पर स्थित मुज़दलिफ़ा के मैदान में पहुंच कर एक साथ मगरिब व ईशा की नमाजें अदा करेंगे और वहीं रात गुजारेंगे

    यूं तो हज के कार्य 8 ज़िलहिज्जा से शुरू हो जाते हैं और 12 या 13 तारीख तक चलते रहते हैं पर हज का असल कार्य अराफात के मैदान में समय गुज़ारना है हज के दूसरे काम कोई भूल गया या उस से छूट गया तो उसके बदले में वह दूसरा काम कर सकता है पर अगर वह अराफात नहीं पहुंचा तो उसका हज ही नहीं होगा।

    ऐ अल्लाह हमें भी हज करने की सआदत नसीब फ़रमा और आज के दिन हाजियों की दुआओं में शरीक रख आमीन

    Yaum e Arfa की सबसे बेहतरीन दुआ

    Yaum e Arfa/यौम ए अरफा़
    Yaum e Arfa ki Dua



    अल्लाह के रसूल ﷺ ने फ़रमाया सबसे बेहतर दुआ अरफ़ा (9 ज़ुल हिज्जा) वाले दिन की दुआ है और मेंने अब तक जो कुछ (बतौर ज़िक्र) कहा है और मुझसे पहले जो दूसरे नबियों ने कहा उन में सबसे बेहतर दुआ ये है


    لا إله إلا الله وحده لا شريك له له الملك وله الحمد و هو على كل شيء قدير»

    ला इलाहा इल्लल्लाहु वह - दहु ला शरीक अलाहू लहुल मुल्कू वला हुल हमदु व - हु वा अला कुल्ली शैय्इन क़दीर

    अल्लाह के सिवा कोई सच्चा माबूद नही वोह अकेला है और इस का कोई शरीक नहीं इसी के लिये सारी बादशाहत और इसी के लिये सारी तारीफ़ है और वोह हर चीज़ पर ख़ूब कुदरत रखने वाला है। (जामे तिरिमज़ी : 3585)
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    नबी अकरम (सल्ल०) ने फ़रमाया : मैं अल्लाह तआला से उम्मीद रखता हूँ कि अरफ़ा के दिन का रोज़ा एक साल पहले और एक साल बाद के गुनाह मिटा देगा।इमाम तिरमिज़ी कहते हैं : 1- अबू-क़तादा (रज़ि०) की हदीस हसन है। 2- इस सिलसिले में अबू-सईद ख़ुदरी (रज़ि०) से भी रिवायत है। 3- आलिमों ने अरफ़ा के दिन के रोज़े को मुस्तहब क़रार दिया है। मगर जो लोग अराफ़ात में हों उन के लिये मुस्तहब नहीं। (तिर्मज़ी:749)

    हज्जे अकबर:-


    अकसर लोग यह समझते हैं के जिस साल यौम अरफ़ा, जुमा के दिन (रोज़) आए वह हज "हज्जे अकबर" कहलाता है और इस का सवाब आम हज की निस्बत सत्तर गुना ज़्यादा होता है। यह तसव्वुर बिल्कुल ग़लत है।

    9 हिजरी मैं रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने हज़रत अबु बकर सिद्धीक़ रज़ियल्लाहू अन्हु को अमीर हज बना कर भेजा। बाद मैं सुरह तौबा की शुरू की आयात नाज़िल हुई जिन मैं यह बात भी इर्शाद फ़रमाई गयी :

    { وَ آذَانٌ مِّنَ اللّٰہِ وَ رَسُوْلِہٖ اِلَی النَّاسِ یَوْمَ الْحَجِّ الْاَکْبَرِ اَنَّ اللّٰہَ بَرِیْئٌ مِّنَ الْمُشْرِکِیْنَ وَ رَسُوْلُہٗ } (3:9)

    "इत्तिला आम है अल्लाह और उसके रसूल की तरफ़ से हज्जे अकबर के दिन तमाम लोगो के लिए अल्लाह और उस का रसूल मुशरिकीन से बरी उज़्ज़िम्मा है।
    (सुरह अल तौबा आयत नंबर 3)

    नुज़ूल आयात के बाद आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने हज़रत अली रज़ियल्लाहू अन्हु को भेजा के आप जाकर हज के मौक़े पर लोगों को यह ऐलान सुना दे। यह बात तहक़ीक़ी शुदा है के 9 हिजरी मैं यौम अरफ़ा, जुमा के रोज़ नही था, लेकिन क़ुरआन मजीद मैं इसके लिए "हज्जे अकबर" का लफ़्ज़ ईस्तेमाल किया है।

    10 हिजरी मैं जब रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने हज्जतुल विदा अदा फ़रमाया। इस साल यौम अरफ़ा जुमा के रोज़ था।

    10 ज़ुलहिज्जा को आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने ख़ुत्बा इर्शाद फ़रमाते हुए लोगों से पूछा "यह कौन सा दिन है?" लोगों ने अर्ज़ किया "यह यौम अन्नहर है आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने इर्शाद फ़रमाया ((ھٰذَا یَوْمُ الْحَجّ الْاَکْبَر)) यानी "यह हज अकबर का दिन है।"
    (अबु दाऊद: 1945, 1946)

    इसका मतलब यह है के Yaum e Arfa , जुमा के रोज़ आए या किसी दूसरे दिन, ज़ुलहिज्जा मैं अदा किया गया हर हज हज्जे अकबर कहलायेगा। याद रहे के नबी अकरम सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम ने क़ुर्बानी के दिन ख़ुत्बा देते हुए यह बात इर्शाद फ़रमाई के आज यौम नह्'र है और यह यौमे "हज्जे अकबर" है।

    गोया हर हज मैं क़ुर्बानी का दिन हज्जे अकबर का दिन है। इमाम अहमद बिन हम्बल रहमउल्लाह की मुसनद मैं एक बाब का नाम ही यह रखा गया है "यौमे हज्जे अकबर से मुराद यौम नह्'र है इससे यह बात वाज़ेह हो जाती है के हर साल यौम नह्'र यौमे हज्जे अकबर है और हर साल का हज हज्जे अकबर कहलाता है।

    हज को "हज्जे अकबर" कहने की वजह सिर्फ़ यह है कि उमरे मैं चुकीं हज के कुछ अरकान शामिल है इस लिए अहले अरब उमरे को "हज्जे असग़र" कहते थे, लिहाज़ा ज़ुलहिज्जा मैं अदा किए गए हज को "हज्जे असग़र से मुमीज़ करने के लिए "हज्जे अकबर" की इस्तलाह ईस्तेमाल करते थे और अब भी अहले इल्म इसी मफ़्हूम के साथ यह दोनों इस्तेलाहात ईस्तेमाल करते है।

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    अरफ़ा के दिन की दुआ

    Yaum e Arfa/यौम ए अरफा़
    Yaum e Arfa/यौम ए अरफा़



    हाफ़िज़ नौवी रहिमहुल्लाह फ़रमाते हैं :

    अरफ़ा (9 ज़िलहिज्जा) का दिन साल के तमाम दिनो मे से दुआ के लिए अफ़ज़ल तरीन दिन है, इंसान को चाहिए कि अपनी तवानाई ज़िक्र व दुआ और तिलावत क़ुरआन मे सर्फ़ (इस्तेमाल) करे, मुख़्तलिफ़ दुआएँ और अज़कार करे, अपने लिए, वालिदैन के लिए, अज़ीज़ व अक़रिब, मशा'इख़, दोस्त व अहबाब, मौहसिनीन और तमाम मुस्लमानो के लिए दुआएँ करे, और इसमे कौताही से बचे क्योंकि इस दिन का तदारुक (भरपाई) फ़िर कभी मुमकिन नही।
    (अल-अज़कार : 198)

    अरफ़ा का रोज़ा कब रखा जाए ?

    अक्सर ये सवाल उठता है कि अरफा का रोजा कब रखा जाए ? आइए जानें 
    अरफ़ा के रोज़ा की तहदीद (हदबंदी) में उलमा के दरमियान बड़ा इख़्तिलाफ़ पाया जाता है बा'ज़ उलमा का कहना है कि पूरी दुनिया के लोग मक्का के हिसाब से अरफ़ा का रोज़ा रखेंगे जबकि बा'ज़ उलमा का कहना है कि सब अपनी अपनी रूयत (चाँद) के हिसाब से रोज़ा रखेंगे।
    मोहतरम क़ारिईन अगर आप नबी-ए-करीम ﷺ के क़ौल-ओ-अमल और उम्मत के त'आमुल (आपस के मुआमले) पर ग़ौर-ओ-फ़िक्र करेंगे तो आप पर हक़ीक़त रोज़-ए-रोशन की तरह अयाँ (ज़ाहिर) हो जाएगी इंशा-अल्लाह सबसे पहली बात यह कि दीन-ए-इस्लाम में बा'ज़ रोज़ा का त'अल्लुक़ चांद देखने से है यानी चांद देखकर रोज़ा रखा जाए जैसे माह-ए-रमज़ान का रोज़ा मुहर्रम-उल-हराम की नौवीं और दसवीं तारीख़ का रोज़ा और अय्याम-ए-बीज़ (महीने की 13, 14, और 15 तारीख़) का रोज़ा

    और बा'ज़ रोज़ा का त'अल्लुक़ चांद देखने से नहीं है बल्कि इस की तख़सीस (खुसूसियत) बा'ज़ अय्याम (दिनों) से की गई है जैसे सोमवार और जुमेरात का रोज़ा अब हमें इस बात पर ग़ौर करना चाहिए कि यौम-ए-'अरफ़ा के रोज़ा को नबी-ए-करीम ﷺ ने चांद के साथ ख़ास किया है या फिर किसी दिन के साथ अगर चांद के साथ ख़ास है तो फिर सब लोग अपनी अपनी रूयत (चांद) के हिसाब से रोज़ा रखेंगे जैसे माह-ए-रमजान और अय्याम-ए-बीज़ का रोज़ा रखा जाता है और अगर किसी दिन के साथ ख़ास है तो पूरी दुनिया के लोग इस दिन रोज़ा रखे गे जैसे सोमवार, जुमेरात का रोज़ा रखा जाता है।

    Arfa ke din ye Dua zarur padhen:-

    अगर अरफ़ा के रोज़ा को हम दिन के साथ ख़ास करते हैं तो इस का मतलब यह है कि अरफ़ा का दिन तारीख के बदलने से नहीं बदलेगा बल्कि वो अपनी जगह क़ाइम-ओ-दाइम रहेगा जैसे सोमवार और जुमेरात का दिन होता है लेकिन अरफ़ा के रोज़ा को दिन के साथ मख़्सूस (विशेष) करना सहीह नहीं क्यूंकि अरफ़ा का दिन हफ़्ते के दिनों की तरह साबित नहीं रहता बल्कि चांद के हिसाब से बदलता रहता है चुनांचे (जैसा कि) कभी अरफ़ा जुमा को होता है तो कभी सनीचर (शनिवार) को और कभी हफ़्ते के दीगर अय्याम मैं।


    लिहाज़ा सहीह बात यही है कि अरफ़ा का दिन तारीख़ से मुर्तबत (जुड़ा हुआ) है और इस दिन का रोज़ा चांद के हिसाब से ही रखा जाएगा

    दुसरी बात ये है कि नबी-ए-करीम ﷺ ने अपना हज्ज ज़िन्दगी के आख़िरीं साल में किया है इस के बाद नबी-ए-करीम ﷺ इस दुनिया में नहीं रहे और जो हाजी हो उसके लिए मुसतहब यह है कि वो अरफ़ा का रोज़ा ना रखें क्योंकि नबी-ए-करीम ﷺ ने भी हालत-ए-हज्ज में अरफ़ा का रोज़ा नहीं रखा था इस का मतलब यह है कि आप ﷺ हज से क़ब्ल (पहले) मदीना में 'अरफ़ा का रोज़ा रखा करते थे

    इस की दलील यह है कि जिस साल नबी-ए-करीम ﷺ ने हज किया उस साल अरफ़ा के दिन बा'ज़ सहाबा के मा-बैन (बीच में) इख़्तिलाफ़ हो गया कि नबी-ए-करीम ﷺ ने अरफ़ा का रोज़ा रखा है या नहीं चुनांचे (जैसा कि) इस इख़्तिलाफ़ को देखते हुए मसअले की तहक़ीक़ की ग़रज़ से उम्मे फ़ज़्ल बिन्ते हारिश रज़ियल्लाहु अन्हा ने दूध का एक प्याला नबी ए करीम ﷺ को भेजा नबी-ए-करीम ﷺ ने इसे पी लिया। (सहीह बुख़ारी:1988:सहीह मुस्लिम:1123)


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    अरफा के रोज़ा से मुतल्लिक सहाबा किराम

    Yaum e Arfa/यौम ए अरफा़
    Yaum e Arfa/यौम ए अरफा़


    क़ारिईन-ए-किराम सहाबा किराम रज़ियल्लाहु अन्हुमा अज्म'ईन का नबी-ए-करीम ﷺ के बारे में सौम-ए-अरफ़ा (अरफ़ा के रोज़ा) के मुत'अल्लिक़ (बारे में) इख़्तिलाफ़ करना इस बात की वाज़ेह दलील है कि हज से क़ब्ल (पहले) नबी-ए-करीम ﷺ और सहाबा किराम रज़ियल्लाहु अन्हुमा अज्म'ईन अरफ़ा का रोज़ा रखा करते थे तो अब सवाल यह पैदा होता है कि हज से क़ब्ल नबी-ए-करीम ﷺ मदीना में जो अरफ़ा का रोज़ा रखते थे वो मक्का के अरफ़ा के हिसाब से या फिर चांद के हिसाब से ?

    क्यूंकि बा'ज़ लोगों का यह कहना है कि अरफ़ा के रोज़े को फ़ज़ीलत दर असल अरफ़ा के दिन के सिलसिले में वारिद फ़ज़ाइल की वजह से हासिल है लेकिन यह बात दुरुस्त नहीं है क्योंकि अगर हम मुसलमानों का पहला हज अबू बक्र व अली रज़ियल्लाहु अन्हुमा की म'इय्यत (साथ) में सन 9 हिजरी में भी मानले तो भी यह बात मोहताज-ए-तहक़ीक़ होगी कि इस से क़ब्ल तो अरफ़ा में हाजियों का वुक़ूफ़ नहीं होता था तो फिर अरफ़ा के रोज़ा को यह फ़ज़ीलत कैसे हासिल हो गई ?

    Arfa ka Roza kab rakhen:-

    पता यह चला कि 'अरफ़ा के रोज़ा का हुज्जाज-ए-किराम के वुक़ूफ़-ए-अरफ़ा से कोई त'अल्लुक़ नहीं है बल्कि इस का त'अल्लुक़ चांद देखने से है और इस रोज़ा को वुक़ूफ़-ए-अरफ़ात से क़ब्ल ही यह फ़ज़ीलत हासिल थी कि इस के रखने से दो साल के गुनाह मु'आफ़ कर दिए जाते है।
    क़ारिईन-ए-किराम जब ख़ुद नबी-ए-करीम ﷺ ने अरफ़ा के रोज़े के लिए मैदान ए अरफ़ा में हाजियों के वुक़ूफ़ का ए'तिबार नहीं किया तो फिर पूरी उम्मत-ए-इस्लामिया के लिए सऊदी के हिसाब से रोज़ा रखना लाज़िम क़रार देना बिल-कुल्लिया (पूरे तौर पर) सहीह नहीं।

    लिहाज़ा राजेह और सहीह बात यह है कि के अपनी अपनी रूयत (चांद) के ए'तिबार से अरफ़ा का रोज़ा रखा जाए

    अल्लाह रब्ब-उल-आलमीन से दुआ है कि हमें दीन की सहीह समझ अता फरमाए और नबी-ए-करीम ﷺ का सच्चा पक्का मुत्तबे व फ़रमान-बरदार बनाए और अश्रा ज़िलहिज्जा के बक़िया अय्याम (बाक़ी दिनों) में नेकियों की कसरत की तौफ़ीक़ अता फ़रमाए और हमारी नेकियों को शरफ़ ए क़ुबूलियत बख़्शे। आमीन या रब

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    Conclusion:-

    Yaum e Arfa , हज का एक महत्वपूर्ण दिन है, जो इस्लामी कैलेंडर के धुल-हिज्जा महीने की 9वीं तारीख को मनाया जाता है। यह दिन मुसलमान हाजियों के लिए बहुत ही अहम है ये वक्त इबादत ,दुआ और मगफिरत का होता है। मक्का के पास मैदान-ए-अरफात में खड़े होकर, हाजी अल्लाह से दुआ करते हैं और उससे मगफिरत और रहमत का सवाल करते हैं

    अरफ़ा (9 ज़िलहिज्जा) का दिन साल के तमाम दिनो मे से दुआ के लिए अफ़ज़ल तरीन दिन है, इंसान को चाहिए कि अपनी तवानाई ज़िक्र व दुआ और तिलावत क़ुरआन मे सर्फ़ (इस्तेमाल) करे, मुख़्तलिफ़ दुआएँ और अज़कार करे, अपने लिए, वालिदैन के लिए, अज़ीज़ व अक़रिब, मशा'इख़, दोस्त व अहबाब, मौहसिनीन और तमाम मुस्लमानो के लिए दुआएँ करे, और इसमे कौताही से बचे क्योंकि इस दिन का तदारुक (भरपाई) फ़िर कभी मुमकिन नही

    FAQs:-

    Que:- अरफा के दिन क्या पढ़ना चाहिए?
    Ans:- अरफा के दिन को वर्ष का सर्वश्रेष्ठ दिन बताया गया है और नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने कहा है, "सबसे अच्छी दुआ अराफा के दिन की दुआ है, और सबसे अच्छे शब्द जो मैंने और मुझसे पहले के पैगम्बरों ने कहे हैं, वे हैं ' ला इलाहा इल्ला अल्लाहु वहदऊ , ला शरीका लहु , लहुल मुल्कु व लहुल अलहम्दु , व हुवा अला कुल्ले शयइन क़दीर "

    Que:- अरफा के दिन रोज़ा की अहमियत क्या है?
    Ans:- नबी अकरम (सल्ल०) ने फ़रमाया : मैं अल्लाह तआला से उम्मीद रखता हूँ कि अरफ़ा के दिन का रोज़ा एक साल पहले और एक साल बाद के गुनाह मिटा देगा

    Que:-क्या अराफा के दिन रोजा रखना अनिवार्य है?
    Ans:जी नहीं! अरफा का रोज़ा रखना अनिवार्य नहीं है लेकिन जो रखे उसके एक साल पहले और बाद के गुनाह मिट जाएगा

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