Azan aur iqaamat/ अज़ान और इक़ामत
Azan aur iqaamat |
Hum aaj Azan aur iqaamat se mutal'liq Aur massail ko kitab o sunnat ki Roshni me janenge ki iski shuruwat kab aur kaise huyi aur iske kalimaat Kya hain kaise hamare Nabi ﷺ ne seekhayen.Aur azan ke baad Kaun se mansoon Duaayein hain. In Sha Allahعَزَّوَجَلَّ
Azan ki shuruwat/अज़ान की शुरुआत
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★ अज़ान की शुरुआ़त उस समय हुई जब अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम मदीना तशरीफ़ लाये तो सवाल पैदा हुआ कि नमाज़ के औक़ात का ऎलान कैसे और किस तरह से किया जाये? कुछ लोगों ने यह मशवरा दिया कि नमाज़ के समय ऊँचे स्थान पर आग रोशन की जाये, या शंख (नाकूस) बजाया जाये। हज़रत अनस रज़ि० ने फ़रमाया कि कुछ सहाबा ने कहा कि आग का जलाना, या शंख बजाना यहूद और नसारा की मुशाबहत है। फिर हज़रत बिलाल को हुक्म दिया गया कि अज़ान के कलिमे जुफ्त (दो-दो बार) कहें और तक्बीर (इकामत) के कलिमात ताक (एक-एक बार) कहें, सिवाए "क़दक़ा-मतिस्सलाह" के।
[बुख़ारी - हदीस न० 603, 606, 607 + मुस्लिम- हदीस न० 378]
Azan ke dohre kalimaat/अज़ान के जुफ़्त यानी दोहरे कलिमात
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اللهُ أَكْبَرُ اللهُ أَكْبَرُ ، اللهُ أَكْبَرُ اللهُ أَكْبَرُ ، أَشْهَدُ أَنْ لَا إِلَهَ إِلَّا اللَّهُ، أَشْهَدُ أَنْ لا إِلَهَ إِلَّا اللهُ، أَشْهَدُ أَنَّ مُحَمَّدًا رَسُولُ اللَّهِ، أَشْهَدُ أَنَّ مُحَمَّدًا رَّسُوْلُ اللَّهِ، حَيَّ عَلَى الصَّلوةِ، حَيَّ عَلَى الصَّلوةِ، حَيَّ عَلَى الْفَلَاحِ، حَيَّ عَلَى الْفَلَاحِ اللَّهُ أَكْبَرُ اللَّهُ أَكْبَرُ ، لَا إِلَهَ إِلَّا اللَّهُ
तर्जुमा - "अल्लाह सब से बड़ा है, अल्लाह सब से बड़ा है, अल्लाह सब से बड़ा है, अल्लाह सब से बड़ा है,। मैं गवाही देता हूं कि अल्लाह के सिवा कोई माबूद नहीं। मैं गवाही देता हूं कि अल्लाह के सिवा कोई (सच्चा) माबूद नहीं। मैं गवाही देता हूं कि मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) अल्लाह के रसूल हैं। मैं गवाही देता हूं कि मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) अल्लाह के रसूल हैं। नमाज़ की तरफ आओ, नमाज़ की तरफ आओ। नजात की तरफ़ आओ। नजात की तरफ़ आओ। अल्लाह सब से बड़ा है, अल्लाह सब से बड़ा है, अल्लाह के सिवा कोई माबूद नहीं।"
[अबू दावूद- हदीस न० 499+इब्ने माजा- हदीस न0 706, इसे इमाम इब्ने हिब्बान (हदीस न0 287) तिर्मिज़ी और नौवी ने सहीह कहा है।]
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Fajar ki Azan me zayadah kalimaat/फ़ज्र की अज़ान में ज़्यादा कलिमात
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★ हज़रत अबू महजूरा रज़ि० कहते हैं कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने उन को अज़ान सिखाई और फ़रमाया : कि फ़ज्र की अज़ान में "हय्य अ-लस्सलाह" के बाद दो बार यह कलिमात ज़्यादा कहें "अस्सलातु ख़ैरुम्मि-नन्नौम, अस्सलातु ख़ैरुम्मि-नन्नौम" यानी "नमाज़ नींद से बेहतर है, नमाज़ नींद से बेहतर है"।
[अबू दावूद - हदीस न० 501+नसई-2/17, इसे इब्ने खुजैमा, इब्ने हिब्बान और नौवी ने सहीह कहा है।]
★ हज़रत अनस रज़ि० फ़रमाते हैं कि सुबह की नमाज़ में "हय्य अ- लस्सलाह” के बाद "अस्सलातु ख़ैरुम्मिनन्नौम" दो मर्तबा कहना सुन्नत है।
[इब्ने खुजैमा - हदीस न0 386 + बैहकी-1/423, इसे खुजैमा ने सहीह कहा है।]
★ हज़रत इब्ने उमर रज़ि० फ़रमाते हैं कि फ़ज्र की पहली अज़ान में "अस्सलातु ख़ैरुम्मिनन्नौम" दो मर्तबा कहा जाय।
[बहैक़ी-1/423, इसे इब्ने हजर ने हसन कहा है। यहां पर पहली अज़ान से मुराद वह अज़ान नहीं है जो फ़ज्र के ज़ाहिर होने से पहले दी जाती है, बल्कि दूसरी अज़ान मुराद है। लेकिन इक़ामत के एतबार से इसे पहली कह दिया गया है (मु० अब्दुल जब्बार)]
★ हज़रत इब्ने अब्बास रज़ि० ने बारिश के वक्त अपने मुअज्ज़िन से कहा कि "हय्या अलस्सलाह" के स्थान पर "अस्सलातु फिरिहालि" या "सल्लू फी बुयूतिकुम" (अपने घरों में नमाज अदा करो) कहे और फ़रमाया : अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने ऐसा ही किया। जुम्अः अर्गचे फ़र्ज़ है मगर मुझे पसन्द नहीं कि तुम कीचड़ और मिट्टी में (मस्जिद) चलो।
[बुख़ारी हदीस न० 668 + मुस्लिम हदीस न0 699, इस से मालूम हुआ कि अज़ान के कलिमात में "अस्सलातु खैरुम्मि - नन्नौम" कहना या "अस्सलातु फिरिहालि" कहना, अज़ान में इज़ाफ़ा नहीं है, बल्कि नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की सुन्नत है। इसलिए इसे अज़ान के अन्दर मनपसन्द इज़ाफ़ो की दलील बनाना दुरुस्त नहीं। (रफ़ीक़ी)]
Takbeer ke ikahre kalimaat/तक्बीर के ताक इकहरे कलिमात
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اللهُ أَكْبَرُ اللَّهُ أَكْبَرُ ، أَشْهَدُ أَنْ لا إِلَهَ إِلَّا اللهُ، أَشْهَدُ أَنَّ مُحَمَّدًا رَسُولُ اللهِ ، حَيَّ عَلَى الصَّلوةِ، حَى عَلَى الْفَلَاحِ، قَدْ قَامَتِ الصَّلوةُ ، قَدْ قَامَتِ الصلوة ، اللهُ أَكْبَرُ اللَّهُ أَكْبَرُ ، لَا إِلَهَ إِلَّا اللهُ -
तर्जुमा - "अल्लाह सब से बड़ा है, अल्लाह सब से बड़ा है मैं गवाही देता हूं कि अल्लाह के सिवा कोई माबूद नहीं, मैं गवाही देता हूं कि मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) अल्लाह के रसूल हैं। नमाज़ की तरफ़ आओ। कामयाबी की तरफ़ आओ। नमाज़ खड़ी हो गयी। नमाज़ खड़ी हो गयी। अल्लाह सब से बड़ा है, अल्लाह सब से बड़ा है। अल्लाह के अलावा कोई इबादत के लायक़ नहीं।
[अबू दावूद- न0 510, 511+इब्ने हिब्बान- हदीस न0 290, 291, इब्ने हिब्बान ने इसे सहीह कहा है।]
★ अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने बिलाल रज़ि० को हुक्म दिया कि अज़ान के कलिमात दो-दो बार और तक्बीर के कलिमात एक-एक बार कहें।
[बुख़ारी -हदीस न0 603, 605, 607 + मुस्लिम - न० 378]
★ हज़रत इब्ने उमर रज़ि० से रिवायत है, उन्होंने कहा कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के ज़माना में अज़ान के कलिमात दो-दो बार और तक्बीर के कलिमात एक-एक बार थे, सिवाए इस के कि मुअज़्ज़िन “कदकामतिस्सलात" दो बार कहता था।
[अबू दावूद- न0 510, 511+नसई (2/20,21) दार्मी (1/270) हाकिम (1/197) इमाम नौवी ने इसे सहीह कहा है।]
Dohri Azan/दोहरी अज़ान
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अज़ान में शहादत के चारों कलिमात पहले धीमी आवाज़ से कहना और फ़िर दोबारा बुलन्द आवाज़ से कहना "तर्जीअ" कहलाता है। हज़रत अबू महजूरा रज़ि० रिवायत करते हैं कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने ख़ुद मुझे अज़ान सिखाई, पस अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमायाः (अज़ान इस तरह) कहो।
[मुस्लिम- न० 379+ अबू दाबूद- हदीस न0 503]
اللهُ أَكْبَرُ اللهُ أَكْبَرُ ، اللهُ أَكْبَرُ اللهُ أَكْبَرُ ، أَشْهَدُ أَنْ لا إِلَهَ إِلَّا اللَّهُ، أَشْهَدُ أن لا إِلَهَ إِلَّا اللهُ، أَشْهَدُ أَنَّ مُحَمَّدًا رَّسُوْلُ اللَّهِ، أَشْهَدُ أَنَّ مُحَمَّدًا رَّسُولُ اللهِ ، أَشْهَدُ أَنْ لَا إِلَهَ إِلَّا اللَّهُ ، أَشْهَدُ أَنْ لا إِلَهَ إِلَّا اللهُ، أَشْهَدُ أَنَّ مُحَمَّدًا رَّسُوْلُ اللَّهِ، أَشْهَدُ أَنَّ مُحَمَّدًا رَّسُوْلُ اللَّهِ، حَيَّ عَلَى الصَّلوةِ، حَيَّ عَلَى الْصَّلُوةِ، حَيَّ عَلَى الْفَلَاحِ، حَيَّ عَلَى الْفَلَاحِ اللَّهُ أَكْبَرُ اللَّهُ أَكْبَرُ ، لَا إِلَهَ إِلَّا اللَّهُ
★ हज़रत अबू महजूरा रज़ि० से रिवायत है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने उन्हें अज़ान के 19 और इकामत के 17 कलिमात सिखाए।
[अबू दावूद - हदीस न0 502, मुस्लिम - हदीस न० 379]
Azan ke fazaail/अज़ान के फ़ज़ाइल सहीह अहादीस से
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★ हज़रत अबू सीद खुदरी रजि० रिवायत करते हैं कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमायाः मुअज़्ज़िन की आवाज़ को जिन्नात, इन्सान और जो-जो चीज़ सुनती हैं वह कियामत के दिन उस के लिये गवाही देगी।
[बुख़ारी -हदीस न० 609]
तिर्मिज़ी हदीस न० 192, इसे इमाम अलबानी ने सहीह कहा है। यानी दोहरी अज़ान और दोहरी इकामत सिखाई। मगर बड़े दुःख की बात है कि कुछ लोग केवल अपने फ़िक़ही मसलक की पैरवी में इन्तिहाई ना-इन्साफी से काम लेते हुए एक ही हदीस में बयान की गयी दोहरी इकामत पर हमेशा अमल करते हैं। मगर दोहरी अज़ान हमेशा छोड़ देते हैं (कभी नहीं कहते) हालांकि अज़ान और इकामत को दोहरा, या एकहरा कहना, दोनों प्रकार सुन्नत से साबित है। इस से मालूम हुआ कि जब तक एक मुसलमान किसी विशेष फ़िक़ह के तक़्लीदी बन्धनों से रिहाई नहीं पाता वह नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की इताअत का हक़ अदा नही कर सकता। इसलिये बेहतर यह है कि किसी मस्अला में मुख़्तलिफ़ इमामों के तर्क की तुलना कर के कोई राय की जाये। माना कि एक जाहिल आदमी ऐसा नहीं कर सकता, मगर उलमा तो जाहिल नहीं, वह मुक़ल्लिद बन कर तस्वीर का केवल एक पहलू लोगों को क्यों दिखाते है? ज़रा सोचें।
★ अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया : "मुअज़्ज़िन के लिये उस शख़्स के सवाब के बराबर सवाब है जिस ने (अज़ान सुन कर) नमाज़ पढ़ी। "
[नसई-2/13, इसे मुन्जुरी ने जय्यिद कहा है।]
मतलब यह है कि मुअज़्ज़िन की अज़ान सुन कर जितने आदमी मस्जिद में आकर नमाज़ पढ़ेंगे, उन सब को अपनी-अपनी नमाज़ का पूरा पूरा सवाब तो मिलेगा ही मगर मुअज़्ज़िन, तमाम नमाज़ियों के सवाब के बराबर मज़ीद (अधिक) अज्र पायेगा। क्योंकि उसने उनको नमाज़ की तरफ़ बुलाया था।
★ हज़रत मुआविया रज़ि० से रिवायत है कि मैंने अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से सुना कि क़ियामत के दिन अज़ान देने वालों की गर्दनें लम्बी होंगी (यानी अल्लाह का नाम बुलन्द करने की वजह से वह नुमायां होंगे)
[मुस्लिम -हदीस न० 387]
★ हज़रत अबू हुरैरा रज़ि० से रिवायत है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया : जब नमाज़ के लिये अज़ान दी जाती है तो शैतान पीठ फ़ेर कर भाग जाता है। और जब अज़ान ख़त्म हो जाती है तो वह आ जाता है। जब तक्बीर कही जाती है तो वह पीठ फ़ेर कर भाग जाता है और जब तक्बीर ख़त्म हो जाती है तो फ़िर आ जाता है और नमाज़ी के दिल में वसवसे डालने लगता है (फलां- फलां बात याद कर यहां तक कि आदमी को पता नहीं चलता कि उसने कितनी नमाज़ पढ़ी। "
[बुख़ारी - हदीस न० 608 + मुस्लिम - हदीस न० 389]
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Azan ka jawab Dena/अज़ान का जवाब देना
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★ हज़त उमर रज़ि॰ से रिवायत है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया: “जब मुअज़्ज़िन कहे “अल्लाहु अक्बर" तो तुम भी कहो "अल्लाहु अक्बर" फिर जब वह "अश-हदु अल्ला इला-ह इल्लल्लाह" कहे तो तुम भी कहो ! अश्-हदु अल्ला इला- ह इल्लल्लाह" कहो, फिर जब वह "अश- हदु अन्न मुहम्म- दर्रसूलुल्लाह" कहे तो तुम भी "अश-हदु अन्न मु-हम्म- दर्रसूलुल्लाह " कहो। फिर जब मुअज़्ज़िन "हय्या अ-लस्सलाह" कहे तो तुम "लाहौल वला कुव्व-त इल्ला बिल्लाह" कहो। फिर जब मुअज़्ज़िन "हय्या अ- लल् फलाह" कहे तो तुम "लाहौल वला कुव्वत इल्ला बिल्लाह" कहो। फिर जब मुअज़्ज़िन “अल्लाहु अकबर" कहे तो तुम भी "अल्लाहु अकबर" कहो। फिर जब मुअज़्ज़िन "लाइला - ह इल्लल्लाह" कहे, तो तुम भी “लाइला - ह इल्लल्लाह" कहो। पस जो शख़्स सच्चे दिल से मुअज़्ज़िन के कलिमात का उत्तर देगा तो (उत्तर देने की बर्कत से) जन्नत में दाख़िल हो जायेगा।
[मुस्लिम- हदीस न0 385]
हाफ़िज़ इब्ने हज्र रह० फ़रमाते हैं: "अस्सलातु खैरुम्मि - नन्नौम" के जवाब में "सदक़-त व-ब-रर-त" के अल्फाज़ की कोई अस्ल नहीं, इसलिये फ़ज्र की अज़ान में "अस्सलातु ख़ैरुम्मिनन्नौम" के उत्तर में भी यही कहना चाहिये, यानी "अस्सलातु ख़ैरुम्मि - नन्नौम"
तक्बीर के दौरान या बाद में "अक़ा-म-हल्लाहु व- अदा- महा" कहने वाली अबू दावूद की रिवायत को इमाम नौवी रह० ने ज़ईफ़ कहा है।(अल्-मज्मू)
इसे हाफ़िज़ इब्ने हजर रह० ने भी ज़'ईफ़ कहा है, इसलिये "कद क़ा-मतिस्सलाह" के शब्द ही कहे जायें, बाक़ी कलिमात का उत्तर (हदीस - "वही कहो जो मुअज़्ज़िन कहता है," पर अमल करते हुये) अज़ान के जवाब की तरह दिया जायेगा। क्योंकि इकामत को भी अज़ान कहा गया है। (बुख़ारी- 627) और विस्तार से मालूमात के लिये "मिश्कात - तहक़ीक़ अलबानी" हदीस न0 670 देखें।
Azan ke baad ke Masnoon Duaayein/अज़ान के बाद की मसनून दुआएं
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★ हज़रत अब्दुल्लाह बिन अम्र बिन आस रज़ि० रिवायत करते हैं कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमायाः
"जब तुम मुअज़्ज़िन (की आवाज़) को सुनो तो तुम मुअज़्ज़िन को जवाब दो। और जब अज़ान ख़त्म हो जाये तो फिर मुझ पर दुरुद भेजो। जो मुझ पर एक बार दुरुद भेजता है अल्लाह उस पर दस बार रहमत भेजता है। "
[मुस्लिम- हदीस न० 384]
इसलिये समस्त मुस्लिम मर्दों और महिलाओं को चाहिये कि जब मुअज़्ज़िन अज़ान, ख़त्म करे तो एक बार दुरूद शरीफ़ पढ़ेंः
तर्जुमा - "या इलाही! रहमत भेज मुहम्मद और उन की आल (औलाद) पर जैसे रहमत भेजी तूने इब्राहीम और उन की आल पर। बेशक तू प्रशंसा किया गया, बुज़ुर्गी वाला है। या इलाही! बर्कत भेज मुहम्मद और उन की आल पर, जैसे बर्कत भेजी तू ने इब्राहीम और उन की आल पर। बेशक तू तारीफ़ किया गया, बुज़ुर्गी वाला है।"
[सहीह बुख़ारी - बाब न० 10, हदीस न0 3370]
★ हज़त जाबिर रज़ि० रिवायत करते हैं कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया : जो शख़्स अज़ान का (उत्तर दे) और फिर अज़ान ख़त्म होने पर यह दुआ पढ़े उस के लिये क़ियामत के दिन मेरी शफ़ाअत वाजिब हो जाती है।
तर्जुमा - "इस पूरी पुकार (अज़ान) के और (क़ियामत तक) क़ाइम रहने वाली नमाज़ के रब! मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को वसीला और बुजुर्गी अता फ़रमा, और उन्हें महमूद के स्थान पर पहुंचा जिस का तूने उन से वादा किया है।
[बुख़ारी - हदीस न0 614]
Waseela kya hai/वसीला क्या है ?
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वसीला के बारे में स्वयँ अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम फ़रमाते हैं:
"वसीला जन्नत में एक दर्जा है जो केवल एक बन्दे के लाइक़ है और मैं आशा करता हूं कि वह बन्दा में ही हूं। पस जिस ने (अज़ान की दुआ पढ़ कर) अल्लाह से मेरे लिये वसीला मांगा उसके लिये (मेरी) शफाअत वाजिब हो गयी।"
[मुस्लिम-हदीस न० 384]
अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के इर्शाद से मालूम हुआ कि वसीला जन्नत के एक बुलन्द दर्जे का नाम है।
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Azan ki dua me izaafa/अज़ान की दुआ में इज़ाफ़ा
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अज़ान की मस्नून दुआ में कुछ लोगों ने चन्द शब्दों को बढ़ा रखा है और यह शब्द नमाज़ की प्रचलित पुस्तकों में भी हैं। मस्नून दुआ के वाक्य "वल् फ़ज़ी-ल-त के बाद "वद्द-र-ज-त र्रफ़ी-अ-त" शब्द का इज़ाफ़ा करते हैं और फिर "व-अत्तहू" के बाद "वर्जुकना शफा-अ-तहू यौ-मल् किया-मह" का भी इज़ाफ़ा कर रखा है। इसी प्रकार दुआ के अन्त में "या अर्-ह-मरर्हिमी-न" भी बढ़ा रखा है।
अफ़सोस ! क्या अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की बताई हुयी दुआ में यह कमियां रह गयी थीं जो बाद के लागों ने इज़ाफ़ा कर के कमी पूरी की? मुसलमानों को तो अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के फ़रमान में कमी-बेशी करने के तसव्वुर से ही कांप उठना चाहिये।
अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने रात को सोने से पहले वुज़ू कर के एक दुआ पढ़ने को बताई। हज़रत बरा बिन आज़िब रज़ि० ने वह दुआ पढ़ कर सुनाई तो "बि-नबिय्य-क" के स्थान पर "बि-रसूलि-क" कहा (यानी नबी की जगह पर रसूल कहा) तो नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया : मेरे बताए हुये शब्द नबी को रसूल से मत बदलो, बल्कि "बि-न-बिय्यिक" ही कहो।
[बुख़ारी - हदीस न0 247, 6311+मुस्लिम- हदीस न0 2710]
इस से मालूम हुआ कि मसनून दुआयें और अज़कार तौक़ीफ़ी (यानी अल्लाह तआला की तरफ़ से) हैं। और इन की हैसियत इबादत की है, इसलिये इन में कमी-बेशी जाइज़ नहीं, लिहाज़ा (किसी तर्क के बग़ैर) वाहिद मुतकल्लिम (एक वचन) के सीग़े को बहु वचन (जमा के) सीग़े से बदलना दुरुस्त नहीं है। इस के बजाए बेहतर यह है कि वाहिद मुतकल्लिम का सीग़ा ही बोला जाये। अल्बत्ता निय्यत में यह रखा जाये कि मैं यही दुआ फलां-फलां के हक़ में भी कर रहा हूं। और मस्नून दुआओं और अज़कार के होते हुये मनघड़त अरबी दुआओं, वज़ीफ़े वग़ैरह का पढ़ना दुरुस्त नहीं है। और अगर इन के कुछ अल्फ़ाज़ शिर्क, कुफ़्र या बिदअत पर आधारित हैं तो इस सूरत में इन का पढ़ना मुकम्मल तौर पर हराम हो जाता है। लेकिन अफ़सोस कि जाहिल लोग रोज़ाना सुबह को पाबन्दी के साथ उन की "तिलावत" करते हैं। अल्लाह हम सब को हिदायत दे! आमीन
★ हज़रत सअद बिन अबी वक्कास रज़ि० रिवायत करते हैं कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया :
"जो शख़्स मुअज़्ज़िन (की अज़ान) सुन कर यह दुआ पढ़े तो उस के गुनाह बख़्श दिये जायेंगे।"
दुआ यह है
तर्जुमा - "मैं गवाही देता हूं कि अल्लाह के सिवा कोई (सच्चा) माबूद नहीं, वह एक है, उस का कोई शरीक नहीं, और बेशक मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम उस के बन्दे और रसूल हैं। मैं अल्लाह के रब होने और मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के सन्देष्टा होने और इस्लाम के दीन होने पर राज़ी हूं।"
[मुस्लिम शरीफ - हदीस न0 386]
Azan aur iqaamat ke kuchh masaail/अज़ान और इकामत के कुछ मसाइल
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हर नमाज़ के वक़्त अज़ान होनी चाहिये।
अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया :
जब अज़ान का वक़्त हो जाये तो तुम में से कोई एक अज़ान कहे। "
[बुख़ारी - हदीस न0 628, 631, 819 + मुस्लिम-हदीस न0 674]
★ हज़रत बिलाल रज़ि० से रिवायत है कि वह अज़ान कहते समय कानों में उगिलयां डालते थे।
[बुख़ारी - हदीस न० तिर्मिज़ी-, हदीस न० 197]
"हय्या अ-लस्सलाह" कहते समय मुंह को दायें तरफ़ फेरें और "हय्या अ- लल् फलाह" कहते समय बायीं ओर।
[बुख़ारी - हदीस न० 634 + मुस्लिम हदीस न0 503]
★ हज़रत उस्मान बिन अबुल आस रज़ि० की रिवायत है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने उन को उन की क़ौम का इमाम मुक़र्रर किया और फ़रमाया-
“मुअज़्ज़िन ऐसा मुक़र्रर करो जो अपनी अज़ान पर मज़दूरी न ले। "
[अबू दावूद-हदीस न० 531+ तिर्मिज़ी - हदीस न0 209। इसे इमाम हाकिम और ज़हबी ने सहीह कहा है।]
★ मुज़्ज़िन ऐसा मुक़र्रर करना चाहिये जो बुलन्द आवाज़ वाला हो। हज़रत अब्दुल्लाह बिन ज़ैद रज़ि० कहते हैं कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने उन्हें फ़रमायाः
"बिलाल को अज़ान सिखाओ क्योंकि वह तुम से बुलन्द आवाज़ वाले हैं। "
[अबू दाबूद- हदीस न० 499 + तिर्मिज़ी- हदीस न० 189, इसे इमाम नवी ने सहीह कहा है।]
एक सहाबी महिला फ़रमाती हैं कि मस्जिद के निकट तमाम घरों से मेरा मकान ऊंचा था और बिलाल रज़ि० उस (मकान) पर (चढ़ कर) फ़ज्र की अज़ान देते थे।
[अबू दावूद - हदीस न0519, इब्ने हजर ने हसन कहा है।]
हज़रत अल्लाह बिन उमर रज़ि० रिवायत करते हैं कि नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने एक आदमी से फ़रमाया :
"जैसे मुअज़्ज़िन कहता है तुम भी उसी प्रकार उत्तर दो, फिर जब तुम उत्तर दे चुको तो तुम (दुआ) मांगो, तो दिया जायेगा। "[अबू दाबूद-524
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Azan aur iqaamat ke darmayan Dua/अज़ान और इका़मत के बीच दुआ
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"अज़ान और तक्बीर के दर्मियान अल्लाह तआला दुआ रद्द नहीं फ़रमाता।"
[मुस्नद अहमद (3/225) इब्ने खुज़ेमा (426, 427) इसे इब्ने हिब्बान ने सही कहा है।]
★ बीमारियों और बलाओं के मौका पर लोग घर-घर अज़ाने देते हैं, यह सुन्नत से साबित नहीं, क्योंकि इस सिलसिले में पेश की जाने वाली तमाम रिवायतें ज़ईफ़ हैं।
★ "अस्सलातु ख़ैरुम्मिनन्नौम" के अल्फ़ाज़ सिवाए फ़ज्र की अज़ान के किसी और अज़ान में नहीं कहना चाहिये।
★ इकामत, अज़ान के तुरन्त बाद नहीं होनी चाहिये, क्योंकि नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमायाः
"अज़ान और तक्बीर के दर्मियान नफ़ल नमाज़ का वक़्फ़ा होता है।"
[बुख़ारी - हदीस न० 624 + मुस्लिम,न० 838]
★ सुबह सादिक़ से कुछ देर पहले वाली अज़ान जाइज़ है। नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमायाः
"तुम्हें बिलाल की अज़ान सहरी खाने से न रोके, क्योंकि वह रात को अज़ान देते हैं ताकि तहज्जुद पढ़ने वाला (आराम की तरफ़) लौट आये और सोने वाला (फ़ज्र नमाज़ के लिये) आगाह हो जाये।"
[बुख़ारी- हदीस न० 621]
★ नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमायाः
"जब इक़ामत हो जाये तो फ़र्ज़ नमाज़ के अलावा कोई नमाज़ नहीं होती।"
[मुस्लिम- हदीस न0 710]
लिहाज़ा नमाज़ी अगर सुन्नतें वग़ैरह तोड़ कर फ़र्ज़ में शामिल होगा तो उसे वह सुन्नतें दोबारा पढ़नी होंगी। ताहम पढ़ी हुयी रक्अतों का सवाब उसे मिल जायेगा। और अगर वह जमाअत की पर्वा न करते हुये सुन्नतें जारी रखेगा तो फिर "नेकी बर्बाद, गुनाह लाज़िम" वाला मुहावरा पूरा हो जायेगा। इसलिये नमाज़ियों को चाहिये कि अगर वह तशह्हुद के क़रीब न पहुचें हुयें हों तो तुरन्त सुन्नतें तोड़ कर जमाअत के साथ शामिल हो जायें। हां, अगर कोई शख़्स यही नमाज़ इस से पहले जमाअत के साथ अदा कर चुका हो तो फिर वह सुन्नतें जारी रख सकता है। (रफ़ीक़ी)
★ नबी करीम सल लगहु अलैहि व सल्लम ने अरफ़ात के मैदान में दो नमाज़े इक्ट्ठी पढ़ीं। आप ने अज़ान केवल एक मर्तबा दिलवाई और हर नमाज़ की इकामत अलग- अलग कहलवाई।
[मुस्लिम- हदीस न0 1218]
★ नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमायाः
"जब इकामत कही जाये तो सफ में शामिल होने के लिये न भागो, बल्कि आराम के साथ चलते हुये आओ। जो नमाज़ तुम (इमाम के साथ) पा लो वह ठीक है, और जो रह जाये उसे बाद में पूरा कर लो। "
[बुख़ारी, हदीस न० 636, 908 + मुस्लिम- हदीस न० 602]
★ हज़रत इब्ने उमर रज़ि० से रिवायत है कि नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमायाः
"बेशक बिलाल रात के समय अज़ान देते हैं पस तुम खाओ-पियो" (यानी अज़ान सुन कर सहरी खाना न छोड़ो) ।
[बुख़ारी हदीस न० 622, 623, 1919 + मुस्लिम-हदीस न0 1092]
★ हज़रत अब्दुल्लाह बिन मस्ऊद रज़ि० की हदीस में इस पहली अज़ान की हिक्मत यह है कि बिलाल रज़ि० की अज़ान इसलिये होती है ताकि तहज्जुद की नमाज़ पढ़ने वाला (फ़ज्र की तैयारी के लिए) जाग जाये।
[बुख़ारी हदीस न० 621+ मुस्लिम - हदीस न0 1093]
नोट - इस अज़ान और फ़ज्र की नमाज़ की अज़ान में इतना समय नहीं होता था जितना आजकल किया जाता है। हज़रत आइशा रज़ि० फ़रमाती हैं कि दोनों मुअज़्ज़िनों की अज़ान के दर्मियान केवल इतना समय होता है कि एक अज़ान दे कर उतरता है और दूसरा अज़ान के लिये चढ़ जाता था।
[मुस्लिम- हदीस न0 1092]
एक शख़्स अज़ान सुन कर मस्जिद से निकला तो हज़रत अबू हुरैरा रज़ि० ने फरमाया:
"बेशक इस शख़्स ने अबुल् कासिम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की अवज्ञा (नाफ़रमानी) की। "
[मुस्लिम- हदीस न० 655]
किसी जाइज़ ज़रूरत, या नमाज़ की तय्यारी के लिये बाहर जाना पड़े तो फिर जाइज़ है।
★ नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमायाः"जो नमाज़ का इरादा करे तो गोया वह नमाज़ ही में है।"
[मुस्लिम - हदीस न० 602]
यानी अगर वह बगैर किसी वजह के सुस्ती से काम न ले तो जब तक वह नमाज़ नहीं पढ़ लेता, उसे नमाज़ का बराबर सवाब मिल रहा होता है।
★ हुमैद रिवायत करते हैं कि मैंने साबित बनानी से पूछा: क्या नमाज़ की इक़ामत हो जाने के बाद इमाम बातें कर सकता है? उन्होंने मुझे अनस बिन मालिक रज़ि० की हदीस सुनाई कि एक मर्तबा नमाज़ के लिये इकामत हो चुकी थी कि इतने में एक शख़्स आया और इकामत हो जाने के बाद नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से बातें करता रहा।
[बुख़ारी - हदीस न० 643]
★ एक मर्तबा नमाज़ की इकामत हो गयी, लोगों ने सफ़े बराबर कर लीं कि इतने में नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को याद आया कि आप जुनूबी हैं। आप ने लोगों से फ़रमाया : अपने स्थान पर खड़े रहो। फिर आपने (घर जा कर) स्नान किया और जब आप वापस तशरीफ़ लाये तो आप के सर से पानी टपक रहा था, फिर आप ने नमाज़ पढ़ाई।
[बुख़ारी-हदीस न०640
Note: भूल जाना इंसानी फितरत है। आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम भी इन्सान (बशर) थे इसीलिये भूल गये। यह भी साबित हुआ कि भूलना पैग़म्बर की शान के ख़िलाफ नहीं।
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Read This: Saheeh Namaz e Nabvi ﷺ
Conclusion:
Is article ko padhne ke baad hame Azan aur iqaamat se mutalliq jankaari haasil ho chuki hogi.ab zarurat hai is par Amal Karen ki.Aur hame ye bhi samajh me aa gaya Hoga ki Azan aur iqaamat ke masaail Kya hain aur pahle ya baad me Kaun se mansoon Duaayein hain.lihaza! Is par Amal Karen.
Sunnat tareeqe se Amal Karke Azan ka jawab de aur duaaon ka ehtamaam Karen aur Nabi ﷺ par darood bhejen aur waseela ki Dua padhen taaki hame Nabi ﷺ ki safa'at naseeb ho.in me izaafa Karke apne Amaal ko barbad na Karen.
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ˡᶦᵏᵉ ᶜᵒᵐᵐᵉⁿᵗ ˢᵃᵛᵉ ˢʰᵃʳᵉ
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